महर्षि चरक

महर्षि चरक

महर्षि चरक

(आयुर्वेद के जनक)

राष्ट्रीयता: भारतीय
किताबें | रचनाएँ : चरक संहिता

महर्षि चरक 

हमारे वेदों में चिकित्सा-ज्ञान जगह-जगह पर वर्णित है। इस ज्ञान को परिष्कृत करके 8 खंडों व 120 अध्यायों में बाँटकर चिकित्सा-शास्त्रियों द्वारा उपयोग में लाने लायक बनानेवाले आचार्य चरक के जन्म, काल, परिवार आदि के बारे में प्रामाणिक जानकारियाँ नहीं हैं। इस कारण इस ग्रंथ के एक सूत्र व विभिन्न अन्य ग्रंथों में इसके संदर्भ में जो उल्लेख हैं, उन्हीं के आधार पर मोटे तौर पर केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है। आचार्य चरक का जन्म ईसा पूर्व छठी शताब्दी में हुआ होगा। उन्होंने यह ज्ञान कब और कैसे प्राप्त किया, इस बारे में भी कोई प्रामाणिक जानकारी नहीं है, पर इस ग्रंथ के एक सूत्र के अनुसार इस ग्रंथ की रचना उत्तर प्रदेश के वर्तमान फर्रुखाबाद जिले की कायमगंज तहसील के एक स्थान कपिल में हुआ था। आचार्य चरक की ‘चरक संहिता’ वास्तव में दो विद्वानों (गुरु व शिष्य) के बीच संवाद के रूप में है। यह केवल चिकित्सा-ज्ञान तक सीमित नहीं है, इसमें जीवन जीने के व्यापक उद्देश्यों एवं उनकी पूर्ति की व्यापक चर्चा भी की गई है। इसमें व्यक्ति को कैसे स्वस्थ रहना है, यह भी समझाया गया है और वैद्य को किस प्रकार से व किस भाव से उपचार करना चाहिए, यह भी बतलाया गया। वैद्य को सलाह दी गई है कि वह प्राणिमात्र से मित्रता का व्यवहार रखे, रोगी के प्रति दया भाव बनाए, साध्य रोगों की प्रेमपूर्वक चिकित्सा करे और असाध्य रोगों की उपेक्षा करे। इसका अर्थ है कि यदि वैद्य आश्वस्त हो जाए कि रोग ठीक नहीं हो सकता तो उसे जबरन चिकित्सा नहीं करनी चाहिए। इसमें सुखी जीवन हेतु शरीर और मन को स्वस्थ रखने, इंद्रियों के दृढ़ होने, उचित आहार द्वारा प्रसन्नता लाने की बात कही गई है। आचार्य चरक ने बतलाया कि संसार के सभी द्रव्य औषधीय गुणों से पूर्ण होते हैं। वात, पित्त एवं कफ औषधि विज्ञान की आधारशिला हैं। ‘चरक संहिता’ में शरीर में ओज अर्थात् विद्युत् की उपस्थिति का भी वर्णन किया गया है। इसमें शरीर के अंदर विद्युत् प्रवाह का भी वर्णन है। त्वचा, छह अंगों, दो बाँहों, दो पैरों, ग्रीवा सहित सिर तथा मध्य शरीर का वर्णन है। अस्थियों की गणना नीचे से की गई है और इनकी संख्या 360 बतलाई गई है। आचार्य चरक ने शरीर के भिन्न-भिन्न भागों का विस्तार से वर्णन किया। उन्होंने शरीर में नौ छिद्रों (दो आँखों, दो कानों, दो नाक, एक मुख, एक गुदा तथा एक मूत्र मार्ग) का वर्णन किया। साथ ही 900 स्नायु शिराओं, 200 धमनियों, 400 पेशियों, 107 मर्म, 200 संधियों, 29,956 शिराओं का भी वर्णन किया। उनके अनुसार, इनमें कमी रोगों को जन्म देती है। आचार्य चरक ने तत्कालीन समाज का भी वर्णन किया है। सिर ढककर, पैरों में जूते-चप्पल पहनकर चलने की सलाह दी है। वैद्यों की आपसी प्रतिस्पर्धा का भी उल्लेख किया है। भोजन का भी वर्णन है और मांस के गुणों का भी वर्णन ‘चरक संहिता’ में किया गया है। साथ में विभिन्न प्रकार के शाकों, जैसे—नीम की पत्ती, मूँग, मटर, उड़द आदि की पत्तियों का वर्णन किया गया है। कंद-मूलों व बादाम-अखरोट जैसे मेवों का भी वर्णन किया गया है। जहाँ एक ओर विभिन्न पहलुओं में बरसनेवाले जल के गुणों का वर्णन किया गया है, वहीं पर सुरा व मद्यपान के गुण-दोषों की भी विवेचना की गई है। यह बतलाया गया है कि विधिपूर्वक मद्यपान से भय, शोक, थकावट दूर होते हैं। उनके पास हिमालय से निकलनेवाली नदियों के जल के गुणों का भी ज्ञान था और पूर्वी तथा पश्चिमी समुद्रों (बंगाल की खाड़ी व अरब सागर) में गिरनेवाली नदियों के जल का बारीक अंतर भी उन्होंने समझाया। विभिन्न स्थानों पर गंगा के प्रवाह, आलस्य के कारण उत्पन्न होनेवाले रोगों, चिकित्सालय के निर्माण के समय बरती जानेवाली सावधानियों, उत्पन्न की जानेवाली व्यवस्थाओं जैसे पानी की व्यवस्था, शौचालय आदि के बारे में विस्तार से बतलाया गया है। उस समय उपचार यंत्रों से भी होता था और मंत्रों से भी। सूक्ष्म आकार की कृमियों, जो दाढ़ी-मूँछ के बालों, गंदे कपड़ों में वास करती हैं, को निकालने हेतु यंत्र विकसित थे और इन कृमियों के गुणों, जैसे पैरों की संख्या, त्वचा, रक्त आदि पर इनके प्रभाव का भी वर्णन किया गया है। हृदय रोग की पीड़ा, जैसे—धड़कन का बढ़ना, छाती भारी होना, पसीना आना आदि का वर्णन किया गया है। आचार्य चरक के काल में मनोविज्ञान भी उन्नत था और उन्होंने उन्माद व उसके निदान का वर्णन किया है। मानसिक रोगी की उपयुक्त चिकित्सा के उपाय जैसे मनोनुकूल विषय याद दिलाना, गाना बजाना आदि के बारे में बतलाया गया है। यह भी बताया कि शरीर मन को प्रभावित करता है और मन शरीर को। अतः मानसिक रोगों का उपचार करते समय शरीर को भी औषधियों द्वारा स्वस्थ किया जाना चाहिए। स्वप्न की महिमा का भी बखान किया गया है और स्वप्न की विकृतियों को उन्माद का पूर्व लक्षण बताया गया है। विक्षिप्त व्यक्तियों के लिए विभिन्न उपचारों, जैसे—ऊपर से जल गिराना, चंदन का लेप लगाना, रस्सी से बाँधना आदि की अनुशंसा की गई है। महामारियों की उत्पत्ति व फैलने के कारणों तथा प्रभाव का भी वर्णन किया गया है। दूषित अन्न, दूषित जल, दूषित वायु, मच्छर, टिड्डी, मक्खियों, चूहों के प्रभावों को समझाया गया है। मंत्र द्वारा चिकित्सा का भी वर्णन किया गया है। कुल मिलाकर ‘चरक संहिता’ एक ऐसा अद्भुत ग्रंथ है, जिसमें उस काल की चिकित्सा-विज्ञान की समस्त उपलब्धियों को समेटा गया है। यह माना जाता रहा है कि जो ज्ञान इसमें नहीं है, वह कहीं नहीं है। प्राचीन काल में वैद्य कर्म करने हेतु शिक्षा पूरी करनेवालों को आचार्य चरक के नाम की शपथ लेनी होती थी। ‘चरक संहिता’ आज भी शोध का विषय है।

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