गजाननं भूतगणादिसेवितं कपित्थजम्बूफलचारु भक्षणम्ं।
उमासुतं शोकविनाशकारकं नमामि विघ्नेश्वरपादपङ्कजम्॥
भावार्थ :
जो हाथी के समान मुख वाले हैं, भूतगणादिसे सदा सेवित रहते हैं, कैथ तथा जामुन फल जिनके लिए प्रिय भोज्य हैं,
पार्वती के पुत्र हैं तथा जो प्राणियों के शोक का विनाश करनेवाले हैं, उन विघ्नेश्वर के चरणकमलों में नमस्कार करता हुँ।।
गुरुर्ब्रह्मा ग्रुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः ॥
भावार्थ :
गुरु ब्रह्मा है, गुरु विष्णु है, गुरु हि शंकर है;
गुरु हि साक्षात् परब्रह्म है; उन सद्गुरु को प्रणाम ।
शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं
विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम्।
लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यं
वन्दे विष्णु भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम्।।
भावार्थ :
जिनकी आकृति अतिशय शांत है, जो शेषनाग की शैया पर शयन किए हुए हैं, जिनकी नाभि में कमल है, जो देवताओं के भी ईश्वर और संपूर्ण जगत के आधार हैं, जो आकाश के सदृश सर्वत्र व्याप्त हैं, नीलमेघ के समान जिनका वर्ण है, अतिशय सुंदर जिनके संपूर्ण अंग हैं, जो योगियों द्वारा ध्यान करके प्राप्त किए जाते हैं, जो संपूर्ण लोकों के स्वामी हैं, जो जन्म-मरण रूप भय का नाश करने वाले हैं, ऐसे लक्ष्मीपति, कमलनेत्र भगवान श्रीविष्णु को मैं प्रणाम करता हूँ।
त्वमेव माता च पिता त्वमेव।
त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव।।
त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव।
त्वमेव सर्व मम देवदेव।।
भावार्थ :
हे प्रभु, तुम ही माता हो, तुम ही मेरे पिता भी हो, बंधु भी तुम ही हो,
सखा भी तुम ही हो। तुम ही मेरे विद्या, तुम ही देवता भी हो
मंगलम् भगवान विष्णु मंगलम् गरुड़ ध्वज
मंगलम् पुंडरीकाक्ष मंगलाय तनो हरी
भावार्थ :
भागवान् विष्णु मंगल हैं, गरुड़ वाहन वाले मंगल हैं,
कमल के समान नेत्र वाले मंगल हैं, हरि मंगल के भंडार हैं ।
(मंगल अर्थात् जो मंगलमय हैं, शुभ हैं, कल्याणप्रद हैं)
ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्
उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् ॥
भावार्थ :
हम त्रि-नेत्रीय वास्तविकता का चिंतन करते हैं जो जीवन की मधुर परिपूर्णता को पोषित करता है और वृद्धि करता है। ककड़ी की तरह हम इसके तने से अलग ("मुक्त") हों, अमरत्व से नहीं बल्कि मृत्यु से हों ।
शिवाय गौरीवदनाब्जवृन्द सूर्याय दक्षाध्वरनाशकाय।
श्रीनीलकण्ठाय वृषध्वजाय तस्मै शिकाराय नम: शिवाय ॥
भावार्थ :
जो शिव स्वयं कल्याण स्वरूप हैं, और जो पार्वती के मुख कमलों को विकसित करने के लिए सूर्य हैं, जो दक्ष–प्रजापति के यज्ञ को नष्ट करने वाले हैं, नील वर्ण का जिनका कण्ठ है, और जो वृषभ अर्थात् धर्म की पताका वाले हैं; ऐसे उस शिकार स्वरूप शिव को मैं नमस्कार करता हूँ।
नागेन्द्रहाराय त्रिलोचनाय भस्माङ्गरागाय महेश्वराय।
नित्याय शुद्धाय दिगम्बराय तस्मै नकाराय नम: शिवाय ॥
भावार्थ :
जो शिव नागराज वासुकि का हार पहिने हुए हैं, तीन नेत्रों वाले हैं, तथा भस्म की राख को सारे शरीर में लगाये हुए हैं, इस प्रकार महान् ऐश्वर्य सम्पन्न वे शिव नित्य–अविनाशी तथा शुभ हैं। दिशायें जिनके लिए वस्त्रों का कार्य करती हैं, अर्थात् वस्त्र आदि उपाधि से भी जो रहित हैं; ऐसे निरवच्छिन्न उस नकार स्वरूप शिव को मैं नमस्कार करता हूँ।
लोकाभिरामं रणरङ्गधीरं राजीवनेत्रं रघुवंशनाथम् ।
कारुण्यरुपं करुणाकरंतं श्रीरामचंद्रं शरणं प्रपद्ये
भावार्थ :
मैं सम्पूर्ण लोकों में सुन्दर तथा रणक्रीडा में धीर, कमलनेत्र, रघुवंश नायक, करुणाकी मूर्ति और करुणा के भण्डार रुपी श्रीराम की शरणमें हूं
मनोजवं मारुततुल्यवेगं जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम् ।
वातात्मजं वानरयूथमुख्यं श्रीरामदूतं शरणं प्रपद्ये ॥
भावार्थ:
जिनकी गति मन के समान और वेग वायु के समान (अत्यंत तेज) है, जो परम जितेन्द्रिय एवं बुद्धिमानों में श्रेष्ठ हैं, मैं उन पवन-नंदन वानारग्रगण्य श्रीराम दूत की शरण लेता हूँ