जन्म: | 4 ई.पू. (बेथलेहेम) |
मृत्यु: | 30-36 ई. पू. (येरुशलम) |
पिता: | यूसुफ |
माता: | मरियम |
धर्म : | यहूदी |
ईसा मसीह (जन्म संभवतः 6 ई. पू. बेथलेहेम, मृत्यु 30-36 ई. पू.) ईसाई धर्म के प्रवर्तक थे। ईशा इब्रानी शब्द येशुआ का तद्भव रूप है, इसका अर्थ है मुक्तिदाता। बाइबिल के अनुसार, ईसा की माता मरियम गलीलिया प्रांत के नाजरेथ गाँव की रहनेवाली थीं।
उनकी सगाई दाउद के राजवंशी यूसुफ नामक बढ़ई से हुई थी। विवाह के पहले ही वह कुँवारी रहते हुए ईश्वरीय प्रभाव से गर्भवती हो गईं। ईश्वर की ओर से संकेत पाकर यूसुफ ने उन्हें पत्नी स्वरूप ग्रहण किया। इस प्रकार जनता ईसा की अलौकिक उत्पत्ति से अनभिज्ञ रही। विवाह संपन्न होने के बाद यूसुफ गलीलिया छोड़कर यहूदिया प्रांत के बेथलेहेम नामक नगरी में जाकर रहने लगे। वहाँ ईसा का जन्म हुआ। शिशु को राजा हेरोद के अत्याचार से बचाने के लिए यूसुफ मिस्र भाग गए।
हेरोद के मरने के बाद यूसुफ लौटकर नाजरेथ गाँव में बस गए। ईसा जब बारह वर्ष के हुए, तो यरुशलम में दो दिन रुककर पुजारियों से ज्ञान चर्चा करते रहे। सत्य को खोजने की वृत्ति उनमें बचपन से ही थी। बाइबिल में उनके 13 से 29 वर्षों के बीच का कोई जिक्र नहीं मिलता। तीस वर्ष की उम्र में उन्होंने यूहन्ना (जॉन) से दीक्षा ली। दीक्षा के बाद वे लोगों को शिक्षा देने लगे।
कुछ समय बाद ईसा ने यूसुफ का पेशा सीख लिया और लगभग 30 साल की उम्र तक उसी गाँव में रहकर वे बढ़ई का काम करते रहे। ईसा के अंतिम दो-तीन वर्ष को समझने के लिए उस समय की राजनीतिक तथा धार्मिक परिस्थिति ध्यान में रखनी चाहिए। समस्त यहूदी जाति रोमन सम्राट् तिबेरियस के अधीन थी तथा यहूदिया प्रांत में पिलातस नामक रोमन राज्यपाल रहता था। यह राजनीतिक परतंत्रता यहूदियों को बहुत अखरती थी। वे अपने धर्मग्रंथ में वर्णित मसीह की राह देख रहे थे, क्योंकि उन्हें आशा थी कि वह मसीह उन्हें रोमन लोगों की गुलामी से मुक्त करेगा।
दूसरी ओर उनके यहाँ पिछली चार शताब्दियों में एक भी नबी प्रकट नहीं हुआ। अतः जब योहन्ना यह संदेश लेकर बपतिस्पा देने लगे कि पछतावा करो, स्वर्ग का राज्य निकट है, तो यहूदियों में उत्साह की लहर दौड़ गई और वे आशा करने लगे कि मसीह शीघ्र आनेवाला है। उस समय ईसा ने अपने औजार छोड़ दिए तथा अपने शिष्यों को चुनकर समस्त देश का परिभ्रमण कर उपदेश देने लगे। यह सर्वविदित था कि ईसा बचपन से अपना सारा जीवन नाजरेथ में बिताकर बढ़ई का ही काम करते रहे। अतः उनके अचानक धर्मोपदेशक बनने पर लोगों को आश्चर्य हुआ।
सबने अनुभव किया कि ईसा अत्यंत सरल भाषा में तथा प्रायः दैनिक जीवन के दृष्टांतों का सहारा लेकर अधिकारपूर्वक मौलिक धार्मिक शिक्षा दे रहे हैं। जिस तरह के मौलिक उपदेश ईसा दे रहे थे, उनकी वजह से ईसा के प्रति यहूदी नेताओं में विरोध उत्पन्न हुआ। वे समझने लगे कि ईसा स्वर्ग का जो राज्य स्थापित करना चाहते हैं, वह एक नया धर्म है, जो यरुशलम के मंदिर से कोई संबंध नहीं रख सकता।
आखिरकार, उन्होंने ईसा को गिरफ्तार कर लिया। सन् 29 में ईसा गधे पर चढ़कर यरुशलम पहुँचे। वहीं उनको दंडित करने की साजिश रची गई। उनके शिष्य जुदास ने उनके साथ विश्वासघात किया। यहूदियों की महासभा ने उनको इसलिए प्राणदंड दिया कि वह मसीह तथा ईश्वर का पुत्र होने का दावा करते हैं। रोमन राज्यपाल ने इस दंडाज्ञा का समर्थन किया और ईसा को सलीब पर मरने का आदेश दिया। अंततः उन्हें विरोधियों ने पकड़कर सलीब पर लटका दिया। ईसा ने सलीब पर लटकते समय ईश्वर से प्रार्थना की ‘हे प्रभु! इन्हें माफ कर दो। ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं।’ ईसा की गिरफ्तारी पर उनके सभी शिष्य विचलित होकर छिप गए थे।
उनकी मृत्यु के बाद उन्होंने राज्यपाल की आज्ञा से उनको सलीब से उतारकर दफना दिया। दफन के तीसरे दिन ईसा की कब्र खाली पाई गई। उसी दिन से आस्थापानों का विश्वास है कि वह पुनर्जीवित होकर अपने शिष्यों को दिखाई देने लगे और उनके साथ वार्त्तालाप भी करने लगे। उस समय ईसा ने अपने शिष्यों को समस्त जातियों में जाकर अपने संदेश का प्रचार करने का आदेश किया। ईसाई मत के अनुसार पुनरुत्थान के 40वें दिन ईसा का स्वर्गारोहण हुआ।