Shlok Gyan

Total Shlokas:- 657

Shlok-gyan--209

कार्यार्थी भजते लोकं यावत्कार्य न सिद्धति !

उत्तीर्णे च परे पारे नौकायां किं प्रयोजनम् !!

भावार्थ:-

जिस तरह नदी पार करने के बाद लोग नाव को भूल जाते है ठीक उसी तरह से लोग अपने काम पूरा होने तक दूसरो की प्रसंशा करते है और काम पूरा हो जाने के बाद दूसरे व्यक्ति को भूल जाते है |

Shlok-gyan--1851

शतेषु जायते शूरः सहस्रेषु च पण्डितः !

वक्ता दशसहस्रेषु दाता भवति वा न वा !!

भावार्थ:-

सौ लोगो में एक शूरवीर होता है, हजार लोगो में एक विद्वान होता है, दस हजार लोगो में एक अच्छा वक्ता होता है वही लाखो में बस एक ही दानी होता है |

Shlok-gyan--211

विद्वत्वं च नृपत्वं च नैव तुल्यं कदाचन !

स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते !!

भावार्थ:-

एक राजा और विद्वान में कभी कोई तुलना नहीं की जा सकती क्योंकि एक राजा तो केवल अपने राज्य में सम्मान पाता है वही एक विद्वान हर जगह सम्मान पाता है |

Shlok-gyan--212

आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः !

नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति !!

भावार्थ:-

मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु आलस्य है| मनुष्य का सबसे बड़ा मित्र परिश्रम होता है क्योंकि परिश्रम करने वाला कभी दुखी नहीं रहता |

Shlok-gyan--213

यथा ह्येकेन चक्रेण न रथस्य गतिर्भवेत् !

एवं परुषकारेण विना दैवं न सिद्ध्यति !!

भावार्थ:-

जिस तरह बिना एक पहिये के रथ नहीं चल सकता ठीक उसी तरह से बिना पुरुषार्थ किये किसी का भाग्य सिद्ध नहीं हो सकता |

 

Shlok-gyan--214

बलवानप्यशक्तोऽसौ धनवानपि निर्धनः !

श्रुतवानपि मूर्खो सौ यो धर्मविमुखो जनः !!

भावार्थ:-

जो व्यक्ति अपने कर्तव्य से विमुख हो जाता है वह व्यक्ति बलवान होने पर भी असमर्थ, धनवान होने पर भी निर्धन व ज्ञानी होने पर भी मुर्ख होता है |

Shlok-gyan--215

जाड्यं धियो हरति सिंचति वाचि सत्यं !

मानोन्नतिं दिशति पापमपा करोति !!

भावार्थ:-

अच्छे दोस्तों का साथ बुद्धि की जटिलता को हर लेता है, हमारी बोली सच बोलने लगती है, इससे मान और उन्नति बढती है और पाप मिट जाते है|

Shlok-gyan--216

पुस्तकस्था तु या विद्या, परहस्तगतं च धनम् !

कार्यकाले समुत्तपन्ने न सा विद्या न तद् धनम् !!

भावार्थ:-

किताब में रखी विद्या व दूसरे के हाथो में गया हुआ धन कभी भी जरुरत के समय काम नहीं आते |

Shlok-gyan--217

विद्या मित्रं प्रवासेषु, भार्या मित्रं गृहेषु च !

व्याधितस्यौषधं मित्रं, धर्मो मित्रं मृतस्य च !!

भावार्थ:-

विद्या की यात्रा, पत्नी का घर, रोगी का औषधि व मृतक का धर्म सबसे बड़ा मित्र होता है |

Shlok-gyan--218

सहसा विदधीत न क्रियामविवेकः परमापदां पदम् !

वृणते हि विमृश्यकारिणं गुणलुब्धाः स्वयमेव संपदः !!

भावार्थ:-

बिना सोचे – समझे आवेश में कोई काम नहीं करना चाहिए क्योंकि विवेक में न रहना सबसे बड़ा दुर्भाग्य है| वही जो व्यक्ति सोच – समझ कर कार्य करता है माँ लक्ष्मी उसी का चुनाव खुद करती है |