Shlok Gyan

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Shlok-gyan--219

यथा काष्ठं च काष्ठं च समेयातां महोदधौ ।

समेत्य च व्यपेयातां तद्वद् भूतसमागम: ॥

– भावार्थ :

जैसे लकडी के दो टुकडे विशाल सागर में मिलते है

और समुन्द्र की एक ही लहर से अलग हो जाते है

उसी तरह दो व्यक्ति कुछ क्षणों के लिए ही मिलते है

फिर कालचक्र की गति से अलग हो जाते है ।

Shlok-gyan--220

खद्योतो द्योतते तावद् यवन्नोदयते शशि ।

उदिते तु सहस्रांशौ न खद्योतो न चन्द्रमा ॥

– भावार्थ :

जब तक चन्द्रमा उगता नही, जुगनु (भी) चमकता है ।

परन्तु जब सुरज उगता है तब जुगनु भी नही होता तथा चन्द्रमा भी नही

Shlok-gyan--221

ब्लवानप्यशक्तोसौ धनवानपि निर्धनः। 

श्रुतवानपि मूर्खोअसौ यो धर्मेविमखो जनः।।

 -भावार्थ :

व्यक्ति कर्मशील नही है और अपना धर्म नही निभाता है। वह व्यक्ति बलवान होते हुये भी निर्बल है। धनवान होते हुये भी निर्धन है और ज्ञानी होते हुये भी अज्ञानी है।

Shlok-gyan--222

दुर्जनः प्रियवादी च नैव विश्वाकारणम्। 

मधु तिष्ठति जीहवाग्रे हृदये तु हलाहलम्।।

-भावार्थ :

दुर्जन व्यक्ति कितना भी मीठा बोले उसकी  बातों पर विश्वास नहीं करना चाहिये, क्योकि उसकी जुबान पर तो  मिठास होती है परन्तु  उसके मन में जहर भरा होता है।

Shlok-gyan--228

अधना धनमिच्छन्ति वाचं चैव चतुष्पदाः। 

मानवाः स्वर्गमिच्छन्ति मोक्षमिच्छन्ति देवताः।।

-भावार्थ :

निर्धन को धन की , जानवरो को बोलने की , मनुष्य को स्वर्ग की और देवताओ को मोक्ष की  इच्छा होती है। 

Shlok-gyan--224

विद्वत्वं च नृपत्वं च नैव तुल्यं कदाचन ।

स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते ॥

-भावार्थ :

विद्वान और राजा की कोई तुलना नहीं हो सकती है. क्योंकि राजा तो केवल अपने राज्य में सम्मान पाता है, जबकि विद्वान जहाँ-जहाँ भी जाता है, वह हर जगह सम्मान पाता है |

Shlok-gyan--225

मूर्खा यत्र न पूज्यते धान्यं यत्र सुसंचितम् ।

दंपत्यो कलहं नास्ति तत्र श्रीः स्वयमागतः ॥

-भावार्थ :

जहाँ मूर्ख को सम्मान नहीं मिलता हो, जहाँ अनाज अच्छे तरीके से रखा जाता हो और जहाँ पति-पत्नी के बीच में लड़ाई नहीं होती हो. वहाँ लक्ष्मी खुद आ जाती है |

Shlok-gyan--2061

परो अपि हितवान् बन्धुः बन्धुः अपि अहितः परः ।

अहितः देहजः व्याधिः हितम् आरण्यं औषधम् ॥

-भावार्थ :

कोई अपरिचित व्यक्ति भी अगर आपकी मदद करे, तो उसे परिवार के सदस्य की तरह महत्व देना चाहिए. और अगर परिवार का कोई अपना सदस्य भी आपको नुकसान पहुंचाए, तो उसे महत्व देना बंद कर देना चाहिए. ठीक उसी तरह जैसे शरीर के किसी अंग में कोई बीमारी हो जाए, तो वह हमें तकलीफ पहुँचाने लगती है. जबकि जंगल में उगी हुई औषधी हमारे लिए लाभकारी होती है|

Shlok-gyan--2281

अधमाः धनमिच्छन्ति धनं मानं च मध्यमाः ।

उत्तमाः मानमिच्छन्ति मानो हि महताम् धनम् ॥

-भावार्थ :

निम्न कोटि के लोग केवल धन की इच्छा रखते हैं, उन्हें सम्मान से कोई मतलब नहीं होता है. जबकि एक मध्यम कोटि का व्यक्ति धन और मान दोनों की इच्छा रखता है. और उत्तम कोटि के लोगों के लिए सम्मान हीं सर्वोपरी होता है. सम्मान, धन से ज्यादा महत्वपूर्ण होता है |


Shlok-gyan--229

येषां न विद्या न तपो न दानं ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः ।

ते मर्त्यलोके भुविभारभूता मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति ॥

-भावार्थ :

जिन लोगों के पास न तो विद्या है, न तप, न दान, न शील, न गुण और न धर्म. वे लोग इस पृथ्वी पर भार हैं और मनुष्य के रूप में जानवर की तरह से घूमते रहते हैं|