Shlok Gyan

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Shlok-gyan--301

सर्वज्ञे सर्ववरदे सर्वदुष्टभयङ्करि ।

सर्वदुःखहरे देवि महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते ॥

भावार्थ :-

सब कुछ जानने वाली, सबको वर देने वाली, समस्त दुष्टों को भय देने वाली और सबके दु:खों को दूर करने वाली, हे देवि महालक्ष्मी ! तुम्हें नमस्कार है ।

Shlok-gyan--302

सिद्धिबुद्धिप्रदे देवि भुक्तिमुक्तिप्रदायिनि ।

मन्त्रपूते सदा देवि महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते ॥

भावार्थ :-

सिद्धि, बुद्धि, भोग और मोक्ष देने वाली हे मन्त्रपूत भगवति महालक्ष्मी ! तुम्हें सदा प्रणाम है ।

Shlok-gyan--303

आद्यन्तरहिते देवि आद्यशक्तिमहेश्वरि ।

योगजे योगसम्भूते महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते ॥

भावार्थ :-

हे देवि ! हे आदि-अन्त-रहित आदिशक्ते ! हे महेश्वरि ! हे योग से प्रकट हुई भगवति महालक्ष्मी ! तुम्हें नमस्कार है ।

Shlok-gyan--304

कर्मफल-यदाचरित कल्याणि ! शुभं वा यदि वाऽशुभम् ।

तदेव लभते भद्रे! कर्त्ता कर्मजमात्मनः ॥

भावार्थ :-

मनुष्य जैसा भी अच्छा या बुरा कर्म करता है, उसे वैसा ही फल मिलता है । कर्त्ता को अपने कर्म का फल अवश्य भोगना पड़ता है ।

Shlok-gyan--305

निरुत्साहस्य दीनस्य शोकपर्याकुलात्मनः ।

सर्वार्था व्यवसीदन्ति व्यसनं चाधिगच्छति ॥

भावार्थ :-

उत्साह हीन, दीन और शोकाकुल मनुष्य के सभी काम बिगड़ जाते हैं , वह घोर विपत्ति में फंस जाता है ।

Shlok-gyan--306

न सुहृद्यो विपन्नार्था दिनमभ्युपपद्यते ।

स बन्धुर्योअपनीतेषु सहाय्यायोपकल्पते ॥

भावार्थ :-

सुह्रद् वही है जो विपत्तिग्रस्त दीन मित्र का साथ दे और सच्चा बन्धु वही है जो अपने कुमार्गगामी बन्धु का भी सहायता करे ।

Shlok-gyan--307

आढ् यतो वापि दरिद्रो वा दुःखित सुखितोऽपिवा ।

निर्दोषश्च सदोषश्च व्यस्यः परमा गतिः ॥

भावार्थ :-

चाहे धनी हो या निर्धन, दुःखी हो या सुखी, निर्दोष हो या सदोष - मित्र ही मनुष्य का सबसे बड़ा सहारा होता है ।

Shlok-gyan--310

सत्येन रक्ष्यते धर्मो विद्याऽभ्यासेन रक्ष्यते ।

मृज्यया रक्ष्यते रुपं कुलं वृत्तेन रक्ष्यते ॥

भावार्थ :-

धर्म का रक्षण सत्य से, विद्या का अभ्यास से, रुप का सफाई से, और कुल का रक्षण आचरण करने से होता है ।

Shlok-gyan--311

सत्येन धार्यते पृथ्वी सत्येन तपते रविः ।

सत्येन वायवो वान्ति सर्वं सत्ये प्रतिष्ठितम् ॥

भावार्थ :-

सत्य से पृथ्वी का धारण होता है, सत्य से सूर्य तपता है, सत्य से पवन चलता है । सब सत्य पर आधारित है ।

Shlok-gyan--312

नास्ति सत्यसमो धर्मो न सत्याद्विद्यते परम् ।

न हि तीव्रतरं किञ्चिदनृतादिह विद्यते ॥

भावार्थ :-

सत्य जैसा अन्य धर्म नहीं । सत्य से पर कुछ नहीं । असत्य से ज्यादा तीव्रतर कुछ नहीं ।