निकोलस कोपरनिकस

निकोलस कोपरनिकस

निकोलस कोपरनिकस

जन्म: 19 फरवरी, 1473 (पोलैंड)
मृत्यु: 24 मई, 1543 (पोलैंड)
राष्ट्रीयता: पोलिश

रेनेसाँ, अर्थात् पुनर्जागरण काल के प्रमुख आधार-स्तंभ माने जानेवाले निकोलस कोपरनिकस, का जन्म 19 फरवरी, 1473 को पोलैंड के पूर्वी भाग में स्थित एक शहर तोरून में हुआ था, जो कि विस्चुला नदी के पास है।

उसके पिता न केवल बड़े व्यापारी थे वरन् शहर के गण्यमान्य व्यक्ति व मजिस्ट्रेट भी थे। मात्र 10 वर्ष की उम्र में ही कोपरनिकस के पिता का देहांत हो गया। अब उसके मामा लुकास बेक्जेंटोड ने उसका लालन-पालन किया। वे एक शिक्षित पादरी थे तथा बाद में बिशप बन गए थे। वे निकोलस को भी चर्च की सेवा में ही लगाना चाहते थे और उसी के अनुसार उनकी शिक्षा-दीक्षा प्रारंभ हुई और आगे बढ़ी। 18 वर्ष की उम्र में उनका प्रवेश पोलैंड की राजधानी में स्थित क्रैस्को विश्वविद्यालय में हुआ। यहाँ पर जर्मनी, हंगरी, पोलैंड, इटली, स्विट्जरलैंड, स्वीडन आदि से छात्र उच्च अध्ययन हेतु आते थे। शिक्षा का माध्यम लैटिन था और उस समय सभी उच्चतर पुस्तकें लैटिन में थीं।

निकोलस ने खगोल-शास्त्र, दर्शन, ज्यामिति, भूगोल आदि का अध्ययन किया। उस समय खगोल-शास्त्र सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता था। वह युग विश्व-यात्राओं का युग था। जब कोपरनिकस मात्र 19 वर्ष का था, तब कोलंबस ने लंबी यात्रा करके अमेरिका को ढूँढ़ निकाला था। समुद्र पार व्यापार के लिए बड़े-बड़े जलयान बनाए जा रहे थे और इन यात्राओं के लिए दिशा-ज्ञान का स्रोत खगोल-शास्त्र ही था, जिसके आधार पर सारणियाँ तैयार होती थीं।

पादरी बनने के लिए उपयुक्त रिक्ति न होने के कारण मामा ने भानजे कोपरनिकस को कानून का अध्ययन करने हेतु बोलोग्ना विश्वविद्यालय भेजा। सन् 1503 में कानून में डिग्री लेने के बाद उन्होंने चिकित्सा-शास्त्र का अध्ययन करने की इच्छा व्यक्त की, ताकि वह चर्च की बेहतर सेवा कर सकें। उस समय चिकित्सा-शास्त्र के अध्ययन में भी खगोल-शास्त्र का प्रमुख स्थान था। यह माना जाता था कि मानव शरीर पर खगोलीय पिंडों व उनकी गति का विशेष प्रभाव पड़ता है। 39 वर्ष की उम्र में कोपरनिकस ने अपनी पढ़ाई पूरी की और वापस अपने शहर आए। तब तक उनके मामा गंभीर रूप से बीमार पड़ चुके थे। उन्होंने उनकी सेवा की और उनके निधन के पश्चात् चर्च के काम में लग गए।

उनका चिकित्सा-ज्ञान इसमें काम आने लगा। कोपरनिकस ने अपने गणित ज्ञान, खगोल-शास्त्र अध्ययन, चिकित्सा-शास्त्र में महारत तथा धर्म के प्रति सेवा भाव में समन्वय स्थापित किया और खगोल-शास्त्र के क्षेत्र में अनुसंधान को आगे बढ़ाया। वे सूर्य, चंद्रमा व अन्य ग्रहों की गति को दर्ज भी करते रहे और इस प्रकार के 27 अध्ययन उन्होंने सन् 1497 से 1529 के बीच प्रकाशित कराए।

उनके खगोल-शास्त्र संबंधी कार्य को सराहा गया। उन्हें कैलेंडर सुधार की एक समिति में भी शामिल किया गया। यह कार्य उस समय महत्त्वपूर्ण समझा जाता था। पर कोपरनिकस ने इसमें अपना कोई ठोस विचार नहीं रखा। कारण यह था कि सूर्य व चंद्रमा की स्थितियों के बारे में उनके पास सटीक आँकडे़ नहीं थे और इस कारण कैलेंडर का पुनर्मूल्याकंन कठिन था। समय के साथ कोपरनिकस का अध्ययन बढ़ता गया। उन्हें खगोल-शास्त्र का टोलेमी का सिद्धांत नहीं भाया। वैसे भी टोलेमी के सिद्धांत में कोई मौलिकता नहीं थी और प्राचीन यूनानी दार्शनिकों के विचारों का ही मिश्रण था। इसके अनुसार पृथ्वी ब्रह्मांड का केंद्र है और सूर्य, चंद्रमा व अन्य ग्रह वृत्ताकार पथों पर उसकी परिक्रमा करते हैं।

तत्कालीन खगोलविद् इसी के आधार पर भावी अनुमान लगाते थे। अपने संदेह को सत्य सिद्ध करने के लिए कोपरनिकस ने प्राचीन यूनानी दार्शनिकों के ग्रंथों का गहन अध्ययन किया। इसमें उन्होंने पाया कि अनेक विद्वानों ने सूर्य-केंद्रित सिद्धांत की भी वकालत की है। प्रारंभ में पृथ्वी के घूर्णन के बारे में सोचकर कोपरनिकस को भी अटपटा लगा; पर धीरे-धीरे यह सिद्धांत बेहतर लगने लगा। इससे अब तक उभर रहे प्रश्नों का समाधान होता चला गया। सन् 1514 में ही कोपरनिकस ने अपने इस सिद्धांत को अपने निकट मित्रों को दिखलाया। उन्होंने ये बिंदु सामने रखे— 

1. तारों की स्थिति रोज बदली नजर आती है।

2. सूर्य की स्थिति भी बदलती है।

3. पृथ्वी के अपनी धुरी पर घूमने और सूर्य के चारों ओर वार्षिक परिक्रमा करने से ग्रहों की स्थिति भी बदलती दिखाई देती है। 

उन्होंने सिद्ध किया कि पृथ्वी केवल चंद्रमा के लिए केंद्र है। अपनी बात को और स्पष्ट करने हेतु उन्होंने चित्र बनाए और गणित का उपयोग किया। अपने सिद्धांत को उन्होंने सन् 1533 में रोम में पोप क्लेमेंट सप्तम के सम्मुख प्रस्तुत किया। उन्होंने भी स्वीकृत किया और उसको प्रकाशित करने का अनुरोध किया। पर कोपरनिकस उसमें हिचकिचाते रहे। उनके कुछ साहसी मित्र व शिष्य आगे बढ़े और उन्होंने उस पांडुलिपि को अंतिम रूप दिया और प्रकाशित करने के लिए जर्मनी स्थित नरेनबर्ग चले गए। कोपरनिकस पर कोई आँच न आ जाए, इसलिए उन्होंने उसका बाहरी रूप कुछ गोल-मोल ही रखा। पर सत्य को सामने आने में अधिक कठिनाई नहीं होती है।

सभी समझ गए कि कोपरनिकस के सिद्धांत सार क्या हैं। उन्होंने पहले बुध, शुक्र तथा पृथ्वी (चंद्रमा सहित) के परिक्रमा करने को समझाया। इसके बाद दूसरे खंड में उन्होंने मंगल, बृहस्पति तथा शनि की परिक्रमा को समझाया। इसके बाद उन्होंने उन गणितीय सूत्रों को समझाया, जिससे उनकी अवधारणा का सत्यापन किया गया था। बाद के खंडों में चंद्रमा व अन्य पिंडों की व्याख्या की गई थी।

इसके साथ ही ब्रह्मांड की तसवीर पहले से बेहतर दिखाई देने लगी थी। इस प्रकाशित रचना को कोपरनिकस के हाथों में 24 मई, 1543 को लाया गया। बीमार लेखक मृत्यु-शय्या पर थे और अपनी पहली प्रति को देखते ही उनके प्राण-पखेरू उड़़ गए। पर उनकी रचना अमर हो गई। उसने यह भी सिद्ध कर दिया कि ब्रह्मांड बहुत बड़ा है और तारे इतनी दूर हैं कि पृथ्वी के परिक्रमा करने से उनकी स्थिति में आवृतीय परिवर्तन नहीं होता है। हालाँकि प्राचीन यूनानी दार्शनिक अरिस्टार्चस भी इस सिद्धांत को व्यक्त कर चुके थे, पर अपनी सिद्ध करने की शैली के कारण कोपरनिकस का सिद्धांत विश्वव्यापी हो गया।

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