(नरेन्द्रनाथ दत्त)
जन्म: | 12 जनवरी, 1863 (कलकत्ता, भारत) |
मृत्यु: | 4 जुलाई, 1902 (कलकत्ता, भारत) |
पिता: | विश्वनाथ दत्त |
माता: | भुवनेश्वरी देवी |
राष्ट्रीयता: | भारतीय |
धर्म : | हिन्दू |
‘‘उठो, जागो और अपने लक्ष्य की प्राप्ति से पूर्व मत रुको।’’ स्वामी विवेकानंद का यह क्रांतिवाक्य आज भी युवजन को प्रेरित करता है। वे आधुनिक भारत के एक क्रांतिकारी विचारक माने जाते हैं। 12 जनवरी, 1863 कलकत्ता में जनमे स्वामी विवेकानंद का मूल नाम नरेंद्रनाथ था।
बचपन से ही उनकी बुद्धि बड़ी तीव्र थी और परमात्मा को पाने की लालसा भी प्रबल थी। एक पुस्तकालय से वे रोज एक किताब लाते और उसे रोज वापस कर आते। एक दिन कर्मचारी ने पूछ लिया, ‘‘तुम किताब पढ़ने केलिए ले जाते हो, या देखने के लिए?’’ विवेकानंद बोले, ‘‘पढ़ने के लिए। आप कुछ भी पूछ लीजिए।’’ कर्मचारी ने एक पृष्ठ खोला और उसका नंबर बताकर पूछा, ‘‘बताओ, उस पर क्या लिखा है?’’
विवेकानंद ने बिना देखे पृष्ठ को हूबहू सुना दिया।’’ औपचारिक शिक्षा के बाद उनके पिता विश्वनाथ दत्त उन्हें वकील बनाना चाहते थे, जो स्वयं कलकत्ता उच्च न्यायालय में वकील थे, लेकिन अध्यात्म से जुड़े विभिन्न ग्रंथों का अध्ययन करनेविवेकानंद अध्यात्म की राह पर ही आगे बढ़ गए। सन् 1881 में उनकी भेंट रामकृष्ण परमहंस से हुई और वे उनके शिष्य बन गए। वे भी अपने गुरु की तरह काली माँ की भक्ति करने लगे। आगे चलकर स्वामी विवेकानंद ने अद्धैत वेदांत के आधार पर सारे जगत् को आत्मस्वरूप बताया और कहा कि ‘आत्मा को हम देख नहीं सकते, किंतु अनुभव कर सकते हैं। यह आत्मा जगत् के सर्वांश में व्याप्त है। सारे जगत् का जन्म उसी से होता है, फिर वह उसी में लीन हो जाता है।’ उन्होंने धर्म को मनुष्य, समाज और राष्ट्र के निर्माण के लिए स्वीकार किया और कहा कि ‘धर्म मनुष्य के लिए है, मनुष्य धर्म के लिए नहीं।’ दुनिया में भारतीय अध्यात्म का परचम फहराने के लिए 31 मई, 1883 को विवेकानंद अमेरिका गए और शिकागो में 11 सितंबर, 1883 को विश्व धर्म सम्मेलन में अपने उद्बोधन से सबका दिल जीत लिया। ‘भाइयो और बहनो’ से आरंभ उनके संबोधन पर देर तक तालियाँ बजती रहीं।
इस समेलन में उन्होंने शून्य को ब्रह्म सिद्ध किया और भारतीय धर्म दर्शन—अद्वैत वेदांत की श्रेष्ठता का लोहा मनवाया। उन्होंने कहा कि जब हम किसी व्यक्ति या वस्तु को उसकी आत्मा से पृथक रखकर प्रेम करते हैं तो फलतः हमें कष्ट भोगना पड़ता है। अतः हमारी कोशिश यह होनी चाहिए कि हम व्यक्ति को आत्म से जोड़कर देखें या उसे आत्मस्वरूप मानकर चलें तो फिर हम हर स्थिति में— शोक, कष्ट, रोग, द्वेष—तटस्थ रहेंगे, निर्विकार रहेंगे। स्वामी विवेकानंद चार वर्ष तक अमेरिका के विभिन्न शहरों में भारतीय अध्यात्म का प्रचार-प्रसार करते रहे।
वर्ष 1887 में वे स्वदेश लौट आए। घर लौटकर उन्होंने देशवासियों का आह्वान किया—‘‘नया भारत निकल पड़े मोची की दुकान से, भड़भूँजे के भाड़ से, कारखाने से, हाट से, बाजार से, निकल पड़े झाड़ियाँ से, जंगलों से, पहाड़ों से। इस प्रकार उन्होंने आजादी की लड़ाई के लिए लोगों का आह्वान किया। इसके बाद उन्होंने देश-विदेश की व्यापक यात्राएँ कीं। रामकृष्ण मिशन की स्थापना की और धार्मिक आडंबरों, रूढ़ियों, पुरोहितवाद, कठमुल्लापन से लोगों को बचने की सलाह दी।
अपनी विचार क्रांति से उन्होंने लोगों और समाज को जगाने का काम किया। रवींद्रनाथ टैगोर ने उनके बारे में कहा, ‘‘यदि आप भारत को जानना चाहते हैं तो विवेकानंद को पढ़िए। उनमें आप सबकुछ सकारात्मक पाएँगे, नकारात्मक कुछ नहीं।’’ रोमाँ रोलाँ ने उनके बारे में कहा—‘‘उनके द्वितीय होने की कल्पना करना भी असंभव है; वे जहाँ भी गए सर्वप्रथम ही रहे।’’
4 जुलाई, 1902 को 39 वर्ष की अल्पायु में स्वामी विवेकानंद ब्रह्मलीन हो गए। उनके क्रांतिकारी विचार आज भी जन-जन को झंकृत करते रहते हैं।