कार्यार्थी भजते लोकं यावत्कार्य न सिद्धति।
उत्तीर्णे च परे पारे नौकायां किं प्रयोजनम्।।
भावार्थ:-
जब तक काम पूरे नहीं होते हैं तब तक लोग दूसरों की प्रशंसा करते हैं। काम पूरा होने के बाद लोग दूसरे व्यक्ति को भूल जाते हैं। ठीक उसी तरह जैसे नदी पार करने के बाद नाव का कोई उपयोग नहीं रह जाता है।
यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा, शास्त्रं तस्य करोति किं।
लोचनाभ्याम विहीनस्य, दर्पण:किं करिष्यति।।
भावार्थ:-
जिस व्यक्ति के पास स्वयं का विवेक नहीं है। शास्त्र उसका क्या करेगा? जैसे नेत्रहीन व्यक्ति के लिए दर्पण व्यर्थ है।
अपि मेरुसमं प्राज्ञमपि शुरमपि स्थिरम्।
तृणीकरोति तृष्णैका निमेषेण नरोत्तमम्।।
भावार्थ:-
भले ही कोई व्यक्ति मेरु पर्वत की तरह स्थिर, चतुर, बहादुर दिमाग का हो लालच उसे पल भर में घास की तरह खत्म कर सकता है।
सत्यं ब्रूयात प्रियं ब्रूयात न ब्रूयात सत्यं प्रियम।
प्रियं च नानृतं ब्रूयात एष धर्म: सनातन:।।
भावार्थ:-
सत्य बोलो, प्रिय बोलो, अप्रिय लगने वाला सत्य नहीं बोलना चाहिए प्रिय लगने वाला असत्य भी नहीं बोलना चाहिए।
न कश्चित कस्यचित मित्रं न कश्चित कस्यचित रिपु:।
व्यवहारेण जायन्ते, मित्राणि रिप्वस्तथा।।
भावार्थ:-
न कोई किसी का मित्र होता है, न कोई किसी का शत्रु। व्यवहार से ही मित्र या शत्रु बनते हैं।
अधमाः धनमिच्छन्ति धनं मानं च मध्यमाः।
उत्तमाः मानमिच्छन्ति मानो हि महताम् धनम्।।
भावार्थ:-
निम्न कोटि के लोग सिर्फ धन की इच्छा रखते हैं। मध्यम कोटि का व्यक्ति धन और सम्मान दोनों की इच्छा रखता है। वहीं एक उच्च कोटि के व्यक्ति के लिए सिर्फ सम्मान ही मायने रखता है। सम्मान से अधिक मूल्यवान है।
शतेषु जायते शूरः सहस्रेषु च पण्डितः।
वक्ता दशसहस्रेषु दाता भवति वा न वा।।
भावार्थ:-
सौ लोगों में से एक शूरवीर होता है। हजार लोगों में एक विद्वान होता है। दस हजार लोगों में एक अच्छा वक्ता होता है। वही लाखों में बस एक ही दानी होता है।
पृथ्वियां त्रीणि रत्नानि जलमन्नम सुभाषितं।
मूढ़े: पाधानखंडेषु रत्नसंज्ञा विधीयते।।
भावार्थ:-
पृथ्वी पर तीन रत्न हैं जलअन्न और शुभ वाणी पर मुर्ख लोग पत्थर के टुकड़ों को रत्न की संज्ञा देते हैं।
माता शत्रुः पिता वैरी येन बालो न पाठितः।
न शोभते सभामध्ये हंसमध्ये बको यथा।।
भावार्थ:-
जो माता पिता अपने बच्चो को शिक्षा से वंचित रखते हैं, ऐसे माँ बाप बच्चो के शत्रु के समान है। विद्वानों की सभा में अनपढ़ व्यक्ति कभी सम्मान नहीं पा सकता वह हंसो के बीच एक बगुले के सामान है।
विद्वत्वं च नृपत्वं च नैव तुल्यं कदाचन।
स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते।।
भावार्थ:-
एक विद्वान और राजा की कभी कोई तुलना नहीं की जा सकती। क्योंकि राजा तो केवल अपने राज्य में सम्मान पाता है वही एक विद्वान हर जगह सम्मान पाता है।