Shlok Gyan

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Shlok-gyan--1691

आढ् यतो वापि दरिद्रो वा दुःखित सुखितोऽपिवा ।

निर्दोषश्च सदोषश्च व्यस्यः परमा गतिः ॥

भावार्थ:- 

चाहे धनी हो या निर्धन, दुःखी हो या सुखी, निर्दोष हो या सदोष – मित्र ही मनुष्य का सबसे बड़ा सहारा होता है ।

Shlok-gyan--1701

वसेत्सह सपत्नेन क्रुद्धेनाशुविषेण च ।

न तू मित्रप्रवादेन संवसेच्छत्रु सेविना ॥

भावार्थ:- 

शत्रु और क्रुद्ध महाविषधर सर्प के साथ भले ही रहें, पर ऐसे मनुष्य के साथ कभी न रहे जो ऊपर से तो मित्र कहलाता है, लेकिन भीतर-भीतर शत्रु का हितसाधक हो ।

Shlok-gyan--1711

न चातिप्रणयः कार्यः कर्त्तव्योप्रणयश्च ते ।

उभयं हि महान् दोसस्तस्मादन्तरदृग्भव ॥

भावार्थ:- 

मृत्यु-पूर्व बालि ने अपने पुत्र अंगद को यह अन्तिम उपदेश दिया था – तुम किसी से अधिक प्रेम या अधिक वैर न करना, क्योंकि दोनों ही अत्यन्त अनिष्टकारक होते हैं, सदा मध्यम मार्ग का ही अवलम्बन करना ।

Shlok-gyan--172

दुर्जन:परिहर्तव्यो विद्यालंकृतो सन।

मणिना भूषितो सर्प:किमसौ न भयंकर:।।

भावार्थ:- 

 दुष्ट व्यक्ति यदि विद्या से सुशोभित भी हो तो (अर्थात् वह विद्यावान भी हो तो) भी उसका परित्याग कर देना चाहिए जैसे मणि से सुशोभित सर्प क्या भयंकर नहीं होता?

Shlok-gyan--173

विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभ्य सह।

अविद्यया मृत्युं तीर्त्वाऽमृतमश्नुते।।

भावार्थ:- 

 जो भौतिक विज्ञान के साथ-साथ आध्यात्मिक विज्ञान भी, दोनों को जानता है, पूर्व से मृत्यु का भय अर्थात् उचित शारीरिक और मानसिक प्रयासों से और उतरार्द्ध अर्थात् मन और आत्मा की पवित्रता से मुक्ति प्राप्त करता है।

Shlok-gyan--174

निश्चित्वा यः प्रक्रमते नान्तर्वसति कर्मणः।

अवन्ध्यकालो वश्यात्मा स वै पण्डित उच्यते।।

भावार्थ:- 

 जिसके प्रयास एक दृढ़ प्रतिबध्दता से शुरू होते हैं जो कार्य पूर्ण होने तक ज्यादा आराम नहीं करते हैं जो समय बर्बाद नहीं करते हैं और जो अपने विचारों पर नियन्त्रण रखते हैं वह बुद्धिमान है।

Shlok-gyan--175

हस्तस्य भूषणम दानम, सत्यं कंठस्य भूषणं।

श्रोतस्य भूषणं शास्त्रम,भूषनै:किं प्रयोजनम।।

भावार्थ:- 

 हाथ का आभूषण दान है, गले का आभूषण सत्य है, कान की शोभा शास्त्र सुनने से है, अन्य आभूषणों की क्या आवश्यकता है।

Shlok-gyan--176

दुर्जन:स्वस्वभावेन परकार्ये विनश्यति।

नोदर तृप्तिमायाती मूषक:वस्त्रभक्षक:।।

भावार्थ:- 

 दुष्ट व्यक्ति का स्वभाव ही दूसरे के कार्य बिगाड़ने का होता है। वस्त्रों को काटने वाला चूहा पेट भरने के लिए कपड़े नहीं कटता।

Shlok-gyan--177

यद्यत्संद्दश्यते लोके सर्वं तत्कर्मसम्भवम्।

सर्वां कर्मांनुसारेण जन्तुर्भोगान्भुनक्ति वै।।

भावार्थ:- 

 लोगों के बीच जो सुख या दुःख देखा जाता है कर्म से पैदा होता है। सभी प्राणी अपने पिछले कर्मों के अनुसार आनंद लेते हैं या पीड़ित होते हैं।

Shlok-gyan--178

दयाहीनं निष्फलं स्यान्नास्ति धर्मस्तु तत्र हि।

एते वेदा अवेदाः स्यु र्दया यत्र न विद्यते।।

भावार्थ:- 

 बिना दया के किये गये काम में कोई फल नहीं मिलता, ऐसे काम में धर्म नहीं होता जहां दया नहीं होती। वहां वेद भी अवेद बन जाते हैं।