Shlok Gyan

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Shlok-gyan--155

अविक्रयं सत्यमनन्तमाद्यं गुहाशयम् निष्फलमप्रतर्क्यम् ।

मनोऽग्रयानं वचसा निरुक्तं नमाम्यहं देवदरं वेरण्यं ॥

भावार्थ:-

सर्व विकारों से रहित, सत्य स्वरुप, अनंत, आद्य, सर्वान्तर्यामी, उपाधिरहित, तर्कातीत, मन से भी वर्णनातीत, ऐसे सर्वश्रेष्ठ, सर्वोत्तम देवता को हम नमस्कार करते हैं ।

Shlok-gyan--156

वायुदेवपरा वेदा वासुदेवपरा मखाः ।

वासुदेवपरा योगा वासुदेवपराः क्रियाः ॥

भावार्थ:-

सभी वेद वासुदेवपर है, यज्ञ भी वासुदेव की प्राप्ति के लिए हि होते हैं; योग भी वासुदेवपर हि हैं, और सभी कर्म भी वासुदेव की प्राप्ति के हि साधन है ।

Shlok-gyan--157

उप समीपे यो वासो निजात्मपरमात्मनोः ।

उपवासः स विज्ञेयो न तु कायस्य शोषणम् ॥

भावार्थ:-

आत्मा का परमात्मा के पास रहेना, वही उपवास है, और नहीं कि काया का शोषण करना ।

Shlok-gyan--158

यः स्मर्यते सर्वमुनीन्द्रवृन्दैः यः स्तूयते सर्वनरामरेन्द्रैः ।

यो गीयते वेदपुराणशास्त्रैः स देवदेवो ह्रदये ममास्ताम् ॥

भावार्थ:-

सब श्रेष्ठ मुनियों का समूह जिनका स्मरण करते हैं; सब मनुष्य, देव और इन्द्र जिनकी स्तुति करते हैं; जिनके गुण पुराण, वेद और शास्त्र गाते हैं, वैसे हे देवाधिदेव ! मेरे हृदय में आकर बसो ।

Shlok-gyan--159

स्वयं महेशः श्वशुरो नगेशः सखा धनेश स्तनयो गणेशः ।

तथापि भिक्षाटनमेव शम्भोः बलीयसी केवलमीश्वरेच्छा ॥

भावार्थ:-

स्वयं महेश है, ससुर पर्वतश्रेष्ठ है, कुबेर जैसा धनी उनका मित्र है, और पुत्र गणों का स्वामी है । फिर भी भगवान शंकर को भिक्षा के लिए भटकना पडता है ! सचमुच, ईश्वर की ईच्छा हि बलवान है ।

Shlok-gyan--160

उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः ।

यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः ॥

भावार्थ:-

(क्षर और अक्षर) इन दोनों से उत्तम पुरुष अन्य हि है, जो तीनों लोक में प्रवेश कर सब का धारण-पोषण करता है; और जो अविनाशी, परमेश्वर या परमात्मा ऐसे नामों से जाना जाता है ।

Shlok-gyan--162

यदाचरित कल्याणि ! शुभं वा यदि वाऽशुभम् ।

तदेव लभते भद्रे! कर्त्ता कर्मजमात्मनः ॥

भावार्थ:- 

मनुष्य जैसा भी अच्छा या बुरा कर्म करता है, उसे वैसा ही फल मिलता है । कर्त्ता को अपने कर्म का फल अवश्य भोगना पड़ता है ।

Shlok-gyan--161

सुदुखं शयितः पूर्वं प्राप्येदं सुखमुत्तमम् ।

प्राप्तकालं न जानीते विश्वामित्रो यथा मुनिः ॥

भावार्थ:- 

किसी को जब बहुत दिनों तक अत्यधिक दुःख भोगने के बाद महान सुख मिलता है तो उसे विश्वामित्र मुनि की भांति समय का ज्ञान नहीं रहता – सुख का अधिक समय भी थोड़ा ही जान पड़ता है ।

Shlok-gyan--163

निरुत्साहस्य दीनस्य शोकपर्याकुलात्मनः ।

सर्वार्था व्यवसीदन्ति व्यसनं चाधिगच्छति ॥

भावार्थ:- 

उत्साह हीन, दीन और शोकाकुल मनुष्य के सभी काम बिगड़ जाते हैं , वह घोर विपत्ति में फंस जाता है ।

Shlok-gyan--164

धर्मादर्थः प्रभवति धर्मात्प्रभवते सुखम् ।

धर्मण लभते सर्वं धर्मप्रसारमिदं जगत् ॥

भावार्थ:- 

धर्म से ही धन, सुख तथा सब कुछ प्राप्त होता है । इस संसार में धर्म ही सार वस्तु है ।