अविक्रयं सत्यमनन्तमाद्यं गुहाशयम् निष्फलमप्रतर्क्यम् ।
मनोऽग्रयानं वचसा निरुक्तं नमाम्यहं देवदरं वेरण्यं ॥
भावार्थ:-
सर्व विकारों से रहित, सत्य स्वरुप, अनंत, आद्य, सर्वान्तर्यामी, उपाधिरहित, तर्कातीत, मन से भी वर्णनातीत, ऐसे सर्वश्रेष्ठ, सर्वोत्तम देवता को हम नमस्कार करते हैं ।
वायुदेवपरा वेदा वासुदेवपरा मखाः ।
वासुदेवपरा योगा वासुदेवपराः क्रियाः ॥
भावार्थ:-
सभी वेद वासुदेवपर है, यज्ञ भी वासुदेव की प्राप्ति के लिए हि होते हैं; योग भी वासुदेवपर हि हैं, और सभी कर्म भी वासुदेव की प्राप्ति के हि साधन है ।
उप समीपे यो वासो निजात्मपरमात्मनोः ।
उपवासः स विज्ञेयो न तु कायस्य शोषणम् ॥
भावार्थ:-
आत्मा का परमात्मा के पास रहेना, वही उपवास है, और नहीं कि काया का शोषण करना ।
यः स्मर्यते सर्वमुनीन्द्रवृन्दैः यः स्तूयते सर्वनरामरेन्द्रैः ।
यो गीयते वेदपुराणशास्त्रैः स देवदेवो ह्रदये ममास्ताम् ॥
भावार्थ:-
सब श्रेष्ठ मुनियों का समूह जिनका स्मरण करते हैं; सब मनुष्य, देव और इन्द्र जिनकी स्तुति करते हैं; जिनके गुण पुराण, वेद और शास्त्र गाते हैं, वैसे हे देवाधिदेव ! मेरे हृदय में आकर बसो ।
स्वयं महेशः श्वशुरो नगेशः सखा धनेश स्तनयो गणेशः ।
तथापि भिक्षाटनमेव शम्भोः बलीयसी केवलमीश्वरेच्छा ॥
भावार्थ:-
स्वयं महेश है, ससुर पर्वतश्रेष्ठ है, कुबेर जैसा धनी उनका मित्र है, और पुत्र गणों का स्वामी है । फिर भी भगवान शंकर को भिक्षा के लिए भटकना पडता है ! सचमुच, ईश्वर की ईच्छा हि बलवान है ।
उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः ।
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः ॥
भावार्थ:-
(क्षर और अक्षर) इन दोनों से उत्तम पुरुष अन्य हि है, जो तीनों लोक में प्रवेश कर सब का धारण-पोषण करता है; और जो अविनाशी, परमेश्वर या परमात्मा ऐसे नामों से जाना जाता है ।
यदाचरित कल्याणि ! शुभं वा यदि वाऽशुभम् ।
तदेव लभते भद्रे! कर्त्ता कर्मजमात्मनः ॥
भावार्थ:-
मनुष्य जैसा भी अच्छा या बुरा कर्म करता है, उसे वैसा ही फल मिलता है । कर्त्ता को अपने कर्म का फल अवश्य भोगना पड़ता है ।
सुदुखं शयितः पूर्वं प्राप्येदं सुखमुत्तमम् ।
प्राप्तकालं न जानीते विश्वामित्रो यथा मुनिः ॥
भावार्थ:-
किसी को जब बहुत दिनों तक अत्यधिक दुःख भोगने के बाद महान सुख मिलता है तो उसे विश्वामित्र मुनि की भांति समय का ज्ञान नहीं रहता – सुख का अधिक समय भी थोड़ा ही जान पड़ता है ।
निरुत्साहस्य दीनस्य शोकपर्याकुलात्मनः ।
सर्वार्था व्यवसीदन्ति व्यसनं चाधिगच्छति ॥
भावार्थ:-
उत्साह हीन, दीन और शोकाकुल मनुष्य के सभी काम बिगड़ जाते हैं , वह घोर विपत्ति में फंस जाता है ।
धर्मादर्थः प्रभवति धर्मात्प्रभवते सुखम् ।
धर्मण लभते सर्वं धर्मप्रसारमिदं जगत् ॥
भावार्थ:-
धर्म से ही धन, सुख तथा सब कुछ प्राप्त होता है । इस संसार में धर्म ही सार वस्तु है ।