Shlok Gyan

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Shlok-gyan--32

परित्राणाय साधूनाम् विनाशाय च दुष्कृताम्।

धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे-युगे. !!

भावार्थ:-

सज्जन पुरुषों के कल्याण के लिए और दुष्कर्मियों के विनाश के लिए... और धर्म की स्थापना के लिए मैं (श्रीकृष्ण) युगों-युगों से प्रत्येक युग में जन्म लेता आया हूं।

Shlok-gyan--33

विद्यां ददाति विनयं विनयाद् याति पात्रताम् ।

पात्रत्वात् धनमाप्नोति धनात् धर्मं ततः सुखम् ॥

– भावार्थ :

विद्या हमें विनम्रता प्रदानकरती है, विनम्रता से योग्यता आती है और योग्यता से हमें धन प्राप्त होता है जिससे हम धर्म के कार्य करते हैं और हमे सुख सुख मिलता है|

Shlok-gyan--34

गुणी गुणं वेत्ति न वेत्ति निर्गुणो

बली बलं वेत्ति न वेत्ति निर्बल: ।

पिको वसन्तस्य गुणं न वायस:

करी च सिंहस्य बलं न मूषक: ॥

 – भावार्थ :

गुणी पुरुष ही दूसरे के गुण पहचानता है, गुणहीन पुरुष नही। बलवान पुरुष ही दूसरे का बल जानता है, बलहीन नही। वसन्त ऋतु आए तो उसे कोयल पहचानती है, कौआ नही। शेर के बल को हाथी पहचानता है, चूहा नही।

Shlok-gyan--35

न चोरहार्य न राजहार्य न भ्रतृभाज्यं न च भारकारि ।

व्यये कृते वर्धति एव नित्यं विद्याधनं सर्वधनप्रधानम् ॥

-भावार्थ :

न चोर चुरा सकता है, न राजा छीन सकता है, न इसका भाइयों के बीच बंटवारा होता है, और न हीं सम्भालना कोई भार है. इसलिए खर्च करने से बढ़ने वाला विद्या रूपी धन, सभी धनों से श्रेष्ठ है|

Shlok-gyan--36

सुखार्थिनः कुतोविद्या नास्ति विद्यार्थिनः सुखम् ।ji

सुखार्थी वा त्यजेद् विद्यां विद्यार्थी वा त्यजेत् सुखम् ॥

– भावार्थ :

सुख चाहने वाले यानि मेहनत से जी चुराने वालों को विद्या कहाँ मिल सकती है और विद्यार्थी को सुख यानि आराम नहीं मिल सकता| सुख की चाहत रखने वाले को विद्या का और विद्या पाने वाले को सुख का त्याग कर देना चाहिए|

Shlok-gyan--37

आलस्य कुतो विद्या,अविद्यस्य  कुतो धनम्।

अधनस्य कुतो मित्रम्, अमित्रस्य कुतः सुखम्।।

 -भावार्थ :

जो आलस्य करता है। उसे विद्या प्राप्त नहीं होती है- जिसके पास विद्या नहीं होती है, उसे धन प्राप्त नहीं होता है, धन के अभाव में मित्र नहीं होते है और मित्र के अभाव में सुख प्राप्ति मुश्किल है। अतः जीवन में विद्या प्राप्त करना बहुत आवश्यक है।

Shlok-gyan--38

मन्दाकिनीसलिलचन्दनचर्चिताय नन्दीश्वरप्रमथनाथमहेश्वराय। 

मन्दारपुष्पबहुपुष्पसुपूजिताय तस्मै मकाराय नम: शिवाय ॥

भावार्थ :

जो शिव आकाशगामिनी मन्दाकिनी के पवित्र जल से संयुक्त तथा चन्दन से सुशोभित हैं, और नन्दीश्वर तथा प्रमथनाथ आदि गण विशेषों एवं षट् सम्पत्तियों से ऐश्वर्यशाली हैं, जो मन्दार–पारिजात आदि अनेक पवित्र पुष्पों द्वारा पूजित हैं; ऐसे उस मकार स्वरूप शिव को मैं नमस्कार करता हूँ।


Shlok-gyan--39

चन्दनं शीतलं लोके ,चन्दनादपि चन्द्रमाः । 

चन्द्रचन्दनयोर्मध्ये शीतला साधुसंगतिः ॥

भावार्थ :

चन्दन को संसार में सबसे शीतल लेप माना गया हैं लेकिन कहते हैं चंद्रमा उससे भी ज्यादा शीतलता देता हैं लेकिन इन सबके अलावा अच्छे मित्रो का साथ सबसे अधिक शीतलता एवम शांति देता हैं ।


Shlok-gyan--40

अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम् ।

परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम् ॥

 भावार्थ :

महर्षि वेदव्यास ने अपने पुराण में दो बाते कही हैं जिनमें पहली हैं दूसरों का भला करना पुण्य हैं और दूसरी दुसरो को अपनी वजह से दुखी करना ही पापा है ।


Shlok-gyan--41

अयं निजः परो वेति गणना लघु चेतसाम् ।

उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ॥

 भावार्थ :

तेरा मेरा करने वाले लोगो की सोच उन्हें बहुत कम देती हैं उन्हें छोटा बना देती हैं जबकि जो व्यक्ति सभी का हित सोचते हैं उदार चरित्र के हैं पूरा संसार ही उसका परिवार होता हैं ।