Shlok Gyan

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श्रोत्रं श्रुतेनैव न कुंडलेन ,

दानेन पाणिर्न तु कंकणेन ,

विभाति कायः करुणापराणां ,

परोपकारैर्न तु चन्दनेन ॥

भावार्थ :

कुंडल पहन लेने से कानों की शोभा नहीं बढ़ती,कानों की शोभा शिक्षा प्रद बातों को सुनने से बढ़ती हैं । उसी प्रकार हाथों में कंगन धारण करने से वे सुन्दर नहीं होते उनकी शोभा शुभ कार्यों अर्थात दान देने से बढ़ती हैं । परहित करने वाले सज्जनों का शरीर भी चन्दन से नहीं अपितु परहित मे किये गये कार्यों से शोभायमान होता हैं ।


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न जानामि योगं जपं नैव पूजांनतोऽहं सदा सर्वदा शम्भुतुभ्यम्।

जराजन्मदुःखौघ तातप्यमानंप्रभो पाहि आपन्नमामीश शंभो॥

भावार्थ :-

मैं न तो योग जानता हूं, न जप और न पूजा ही. हे शम्भो, मैं तो सदा-सर्वदा आप को ही नमस्कार करता हूं. हे प्रभो! बुढ़ापा तथा जन्म के दु:ख समूहों से जलते हुए मुझ दुखी की दु:खों से रक्षा कीजिए. हे शम्भो, मैं आपको नमस्कार करता हूं.

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रक्ष रक्ष गणाध्यक्ष रक्ष त्रैलोक्यरक्षकं।

भक्तानामभयं कर्ता त्राता भव भवार्णवात्॥

भावार्थ :-

हे गणाध्यक्ष रक्षा कीजिए, रक्षा कीजिये । हे तीनों लोकों के रक्षक रक्षा कीजिए; आप भक्तों को अभय प्रदान करनेवाले हैं, भवसागर से मेरी रक्षा कीजिये ।

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य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्।

उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते।।

भावार्थ :-

जो मनुष्य इस आत्मा को हत्या करने वाला समझता है और जो इसे मरा हुआ मानता है वे दोनों ही इसके यथार्थ स्वरूप को नहीं जानते । न यह किसी की हत्या करता है और न हत ही होता है।


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क्रोधो मूलमनर्थानां क्रोधः संसारबन्धनम्।

धर्मक्षयकरः क्रोधः तस्मात् क्रोधं विवर्जयेत्॥

भावार्थ :-

क्रोध समस्त विपत्तियों का मूल कारण है, क्रोध संसार बंधन का कारण है, क्रोध धर्म का नाश करने वाला है, इसलिए क्रोध को त्याग दें।


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नातन्त्री विद्यते वीणा नाचक्रो विद्यते रथः।

नापतिः सुखमेधेत या स्यादपि शतात्मजा ॥

भावार्थ :-

जिस तरह एक वीणा बिना तार के और रथ बिना पहियों के नहीं चलाई जा सकती है, उसी तरह एक स्त्री भी बिना पति के खुश नहीं रह सकती, भले ही वह सौ बेटों की मां ही क्यों न हो।

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आनृशंस्यमनुक्रोशः श्रुतं शीलं दमः शमः |

राघव शोभयन्त्येते षड्गुणाः पुरुषोत्तमं ||

भावार्थ :-

दयालुता (क्रूर न होना) करुणा , विदवत्ता , सच्चरित्रता , आत्मा संयम, शान्त स्वभाव, ये छह गुण हैं, जो भगवान राम को हमेशा सुशोभित करते हैं।

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न प्रहॄष्यति सन्माने नापमाने च कुप्यति।

न क्रुद्ध: परूषं ब्रूयात् स वै साधूत्तम: स्मॄत:॥

भावार्थ :-

जो सम्मान करने पर हर्षित न हों और अपमान करने पर क्रोध न करें, क्रोधित होने पर कठोर वचन न बोलें, उनको ही सज्जनों में श्रेष्ठ कहा गया है।


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त्रिविधं  नरकस्येदं  द्वारं  नाशनमात्मनः  |

कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्  त्रयं त्यजेत् ||     

भावार्थ :-                                               

कामवासना , क्रोध्, तथा लोभ ये  दुर्गुण नरक के तीन द्वारों के समान  हैं और मनुष्य की आत्मा का नाश कर देते हैं अतः इन तीनों दुर्गुणों को  त्याग देना चाहिये |


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ईर्ष्यी   घृणि  न  संतुष्टः  क्रोधिनो  नित्यशङ्कितः |

परभाग्योपजीवी  च  षडेते  नित्य  दुःखिता ||

भावार्थ :-

अन्य व्यक्तियों से घृणा करने वाला , ईर्ष्या करने  वाला, सदा असन्तुष्ट   रहने वाला ,  क्रोधी,  सदैव शङ्का करने  वाला , दूसरों पर आश्रित   रहने वाला, ऐसे छः प्रकार के व्यक्ति  नित्य (सदैव) दुःखी  रहते हैं  |


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अनाहूतः  प्रविशति  अपृष्टो  बहु  भाषते  |

अविश्वस्ते  विश्वसति मूढचेता  नराधमः ||

भावार्थ :-

जो व्यक्ति बिना  बुलाये  आ धमके और कुछ कहने की आज्ञा  न दिये जाने पर भी बहुत  अनर्गल बातें करता हो , और अविश्वसनीय व्यक्तियों के ऊपर पर विश्वास करता हो. ऐसा व्यक्ति  मूर्ख और दुष्ट प्रकृति का व्यक्ति कहलाता है |


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अमित्रं कुरुते मित्रं मित्रं द्वेष्टि हिनस्ति  च |

कर्म चारभते  दुष्टं  तमाहुर्मूढचेतसम् ||

भावार्थ :-

जो व्यक्ति  मित्र बनाने के लिये अयोग्य व्यक्ति को अपना मित्र बनाता है तथा मित्र बनाने के के योग्य व्यक्तियों से  द्वेष करता है  और ऐसे कर्म करता है जिस से उन  की  हानि हो या उन का नाश हो जाय,  ऐसे व्यक्ति को मूर्ख कहा  जाता है |

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आकाशात् पतितं तोयं यथा गच्छति सागरम् |

सर्वदेवनमस्कार: केशवं प्रति गच्छति ||

भावार्थ :-

आकाश से गिरा हुआ पानी जैसे समुद्र में जाता है, उसी प्रकार किसी भी देवता को किया गया नमस्कार श्रीहरि (श्रीकृष्ण) को जाता है॥


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न कश्चित् कस्यचिन्मित्रं न कश्चित् कस्यचित् रिपु:।

अर्थतस्तु निबध्यन्ते मित्राणि रिपवस्तथा॥

भावार्थ :-

न कोई किसी का मित्र है और न शत्रु, कार्यवश ही लोग मित्र और शत्रु बनते हैं॥


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स हि भवति दरिद्रो यस्य तृष्णा विशाला।

मनसि च परितुष्टे कोऽर्थवान् को दरिद्रा:॥

भावार्थ :-

जिसकी कामनाएँ विशाल हैं, वह ही दरिद्र है। मन से संतुष्ट रहने वाले के लिए कौन धनी है और कौन निर्धन॥


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मातृवत् परदारेषु परद्रव्याणि लोष्ठवत्।

आत्मवत् सर्वभूतानि यः पश्यति सः पण्डितः॥

भावार्थ :-

दूसरे की पत्नी को अपनी माँ की तरह, दूसरे के धन को मिट्टी के समान, सभी को अपने जैसा जो देखता है वो ही पंडित (ज्ञानी) है।


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पिता धर्मः पिता स्वर्गः पिता हि परमं तपः।

पितरि प्रीतिमापन्ने सर्वाः प्रीयन्ति देवता।।

भावार्थ :-

पिता ही धर्म है, पिता ही स्वर्ग है और पिता ही सबसे श्रेष्ठ तपस्या है। पिता के प्रसन्न हो जाने पर सारे देवता प्रसन्न हो जाते हैं।


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क्रोधमूलो मनस्तापः क्रोधः संसारबन्धनम्।

धर्मक्षयकरः क्रोधः तस्मात्क्रोधं परित्यज॥

भावार्थ :-

क्रोध मन के दुःख का प्राथमिक कारण है, क्रोध संसार बंधन का कारण है, क्रोध धर्म का नाश करने वाला है, इसलिए क्रोध को त्याग दें।


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आहारनिद्राभय  मैथुनानि  समानि  चैतानि  नृणां  पशूनाम्  |

ज्ञानं  नराणामधिको  विशेषो  ज्ञानेन  हीनाः  पशुभिः समाना    ||

भावार्थ :-

जीवित रहने के लिये आहार  की आवश्यकता ,

निद्रा , भय की भावना तथा  कामवासना, ये  प्रवृत्तियां  मनुष्यों और पशुओं में एक समान ही  होती हैं |   परन्तु मनुष्यों  में ज्ञान (अनेक विषयों की जानकारी) होना एक अतिरिक्त विशेषता है | अतः जो व्यक्ति ज्ञान हीन होते हैं वे पशुओं के समान  ही  जीवन व्यतीत  करते हैं 


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परोपकरणं  येषां  जागर्ति  हृद्ये  सताम् |

नश्यन्ति  विपदस्तेषां  संपदः  स्यु  पदे पदे ||

भावार्थ :-

जिन  सज्जन व्यक्तियों के हृदय  में परोपकार की भावना जागृत होती है और वे अपना जीवन निर्बल लोगों की सहायता के लिये समर्पित कर देते हैं , उनके ऊपर आई हुई सभी विपदायें नष्ट हो  जाती  हैं  तथा उन्हें कदम कदम पर प्रसन्नता और संपत्ति की प्राप्ति  होती है |