विद्या मित्रं प्रवासेषु ,भार्या मित्रं गृहेषु च ।
व्याधितस्यौषधं मित्रं , धर्मो मित्रं मृतस्य च ॥
भावार्थ :-
यात्रा के समय ज्ञान एक मित्र की तरह साथ देता हैं घर में पत्नी एक मित्र की तरह साथ देती हैं, बीमारी के समय दवाएँ साथ निभाती हैं अंत समय में धर्म सबसे बड़ा मित्र होता हैं ।
सत्संगत्वे निस्संगत्वं,निस्संगत्वे निर्मोहत्वं।
निर्मोहत्वे निश्चलतत्त्वं,निश्चलतत्त्वे जीवन्मुक्तिः॥
भावार्थ :-
सत्संग से वैराग्य, वैराग्य से विवेक, विवेक से स्थिर तत्त्वज्ञान और तत्त्वज्ञान से मोक्ष की प्राप्ति होती है ।
मा कुरु धनजनयौवनगर्वं,हरति निमेषात्कालः सर्वं।
मायामयमिदमखिलम् हित्वा,ब्रह्मपदम् त्वं प्रविश विदित्वा॥
भावार्थ :-
धन, शक्ति और यौवन पर गर्व मत करो, समय क्षण भर में इनको नष्ट कर देता है| इस विश्व को माया से घिरा हुआ जान कर तुम ब्रह्म पद में प्रवेश करो ।
योगरतो वाभोगरतोवा,सङ्गरतो वा सङ्गवीहिनः।
यस्य ब्रह्मणि रमते चित्तं,नन्दति नन्दति नन्दत्येव॥
भावार्थ :-
कोई योग में लगा हो या भोग में, संग में आसक्त हो या निसंग हो, पर जिसका मन ब्रह्म में लगा है वो ही आनंद करता है, आनंद ही करता है ।
अजरामरवत् प्राज्ञो विद्यामर्थं च चिन्तयेत् ।
गृहीत इव केशेषु मृत्युना धर्ममाचरेत् ॥
भावार्थ :-
सूझबूझ वाला मनुष्य विद्या एवं धन अर्जित करने का विचार यूं करे जैसे कि वह बुढ़ापे और मृत्यु से मुक्त हो । किंतु साथ में धर्माचरण भी यूं करे जैसे कि काल उसके बाल पकड़कर बैठा हो और कभी भी उसे इहलोक से उठा सकता हो ।
सर्वद्रव्येषु विद्यैव द्रव्यमाहुरनुत्तमम् ।
अहार्यत्वादनर्घत्वादक्षयत्वाच्च सर्वदा॥
भावार्थ :-
विद्वान् लोग कभी न चुराये जाने, अनमोल होने तथा कभी क्षय न होने के कारणों से सभी द्रव्यों, यानी सुख-संपदा-संतुष्टि के आधारों, में से विद्या को ही सर्वोत्तम होने की बात करते हैं ।
ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत् ।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम् ॥
भावार्थ :-
जड़-चेतन प्राणियों वाली यह समस्त सृष्टि परमात्मा से व्याप्त है । मनुष्य इसके पदार्थों का आवश्यकतानुसार भोग करे, परंतु ‘यह सब मेरा नहीं है के भाव के साथ’ उनका संग्रह न करे ।
श्वः कार्यमद्य कुर्वीत पूर्वाह्णे चापराह्णिकम् ।
न हि प्रतीक्षते मृत्युः कृतं वास्य न वा कृतम् ॥
भावार्थ :-
जो कार्य कल किया जाना है उसे पुरुष आज ही संपन्न कर ले, और जो अपराह्न में किया जाना हो उसे पूर्वाह्न में पूरा कर ले, क्योंकि मृत्यु किसी के लिए प्रतीक्षा नहीं करती है, भले ही कार्य संपन्न कर लिया गया हो या नहीं ।
गच्छन् पिपिलिको याति योजनानां शतान्यपि ।
अगच्छन् वैनतेयः पदमेकं न गच्छति ॥
भावार्थ :-
लगातार चल रही चींटी सैकड़ों योजनों की दूरी तय कर लेती है, परंतु न चल रहा गरुड़ एक कदम आगे नहीं बढ़ पाता है ।
अतीतानागता भावा ये च वर्तन्ति साम्प्रतम् ।
तान् कालनिर्मितान् बुध्वा न संज्ञां हातुमर्हसि ॥
भावार्थ :-
सृष्टि में जो भी पदार्थ पूर्व में थे, भविष्य में होंगे और वर्तमान में हैं, वे सब काल द्वारा निर्मित हैं इस तथ्य को समझते हुए तुम्हें (श्रोता) अपना संज्ञान-सामर्थ्य अथवा विवेक नहीं खोना चाहिए ।