Shlok Gyan

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Shlok-gyan--373

रक्ष रक्ष गणाध्यक्ष रक्ष त्रैलोक्यरक्षकं।

भक्तानामभयं कर्ता त्राता भव भवार्णवात्॥

भावार्थ :-

हे गणाध्यक्ष रक्षा कीजिए, रक्षा कीजिये । हे तीनों लोकों के रक्षक! रक्षा कीजिए; आप भक्तों को अभय प्रदान करनेवाले हैं, भवसागर से मेरी रक्षा कीजिये ।

Shlok-gyan--374

केयूरिणं हारकिरीटजुष्टं चतुर्भुजं पाशवराभयानिं।

सृणिं वहन्तं गणपं त्रिनेत्रं सचामरस्त्रीयुगलेन युक्तम्॥

भावार्थ :-

मैं उन भगवान् गणपतिकी वन्दना करता हूँ जो केयूर-हार-किरीट आदि आभूषणों से सुसज्जित हैं, चतुर्भुज हैं और अपने चार हाथों में पाशा अंकुश-वर और अभय मुद्रा को धारण करते हैं, जो तीन नेत्रों वाले हैं, जिन्हें दो स्त्रियाँ चँवर डुलाती रहती हैं

Shlok-gyan--378

शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणे ।

सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते ॥

भावार्थ :-

शरण में आये हुए दिनों एवं पीड़ितों की रक्षा में संलग्न रहने वाली तथा सबकी पीड़ा दूर करने वाली नारायणी देवी ! तुम्हें नमस्कार है ।

Shlok-gyan--379

महिषासुरनिर्नाशि भक्तानां सुखदे नमः ।

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥

भावार्थ :-

महिषासुर का नाश करनेवाली तथा भत्तों को सुख देने वाली देवि ! तुम्हें नमस्कार है । तुम रूप दो, यश दो और काम- क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ।

Shlok-gyan--380

दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तो स्वस्थै: स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि ।

दारिद्र्य दु:ख भयहारिणि का त्वदन्या सर्वोपकारकरणाय सदाऽऽ‌र्द्रचित्ता ॥

भावार्थ :-

हे माँ दुर्गे! आप स्मरण करने पर सब प्राणियों का भय हर लेती हैं और स्वस्थ पुरषों द्वारा चिन्तन करने पर उन्हें परम कल्याण मयी बुद्धि प्रदान करती हैं। दु:ख, दरिद्रता और भय हरने वाली देवि आपके सिवा दूसरी कौन है, जिसका चित्त सब का उपकार करने के लिये सदा मचलता रहता हो।

Shlok-gyan--381

सविषोप्यमृतायते भवाछवमुण्डाभरणोपि पावन:।

भव एव भवान्तक: सतां समदृखिवषमेक्षणोपि सन् ॥

भावार्थ :-

हे शम्भो! आप विषसहित होते हुए भी अमृत के समान हैं, शवों के मुण्डों से सुशोभित होते हुए भी पवित्रा हैं। स्वयं ;जगत् के उत्पादकद्ध भव होते हुए भी, सज्जनों के या सन्तों के ;सांसारिक बन्ध्नद्ध को दूर करने वाले हैं। विषमनेत्रा अर्थात् तीन नेत्रा ;सूर्य, अग्नि, चन्द्र नेत्राद्ध वाले होते हुए भी समदृष्टि अर्थात् पक्षपात रहित हैं।

Shlok-gyan--382

सविषैरिव भोगपगैखवषयैरेभिरलं परिक्षतम्।

अमृतैरिव संभ्रमेण मामभिषिाशु दयावलोकनै: ॥

भावार्थ :-

विषधरी भारी साँपों के समान इन सांसारिक विषयों ने मुझे भयभीत कर रखा है, अत: इनसे मैं परेशान हूँ। कृपया अमृत के समान ;जीवनदायक अथवा मुत्तिफसाध्कद्ध अपने कृपाकटाक्षों के अवलोकन से मुझे बचाइए।

Shlok-gyan--383

दृशं विदधमि क करोम्यनुतिशमि कथं भयाकुल:।

नु तिश्सि रक्ष रक्ष मामयि शम्भो शरणागतोस्मि ते ॥

भावार्थ :-

हे शम्भो! मैं अब किध्र देखूँ ;दृि लगाऊँद्ध क्या करूँ, भयभीत मैं कैसे यहां रहूँ? हे प्रभो! आप कहाँ हैं? मेरी रक्षा करें। मैं ;अबद्ध आपकी हीं शरण में हूँ ।

Shlok-gyan--384

श्रीशैलशृंगे विबुधातिसंगे तुलाद्रितुंगेऽपि मुदा वसन्तम्।

तमर्जुनं मल्लिकपूर्वमेकं नमामि संसारसमुद्रसेतुम् ॥

भावार्थ :-

ऊंचाई की तुलना में जो अन्य पर्वतों से ऊंचा है, जिसमें देवताओं का समागम होता रहता है, ऐसे श्रीशैलश्रृंग में जो प्रसन्नतापूर्वक निवास करते हैं, और जो संसार सागर को पार करने के लिए सेतु के समान हैं, उन्हीं एकमात्र श्री मल्लिकार्जुन भगवान् को मैं नमस्कार करता हूँ।

Shlok-gyan--385

अवन्तिकायां विहितावतारं मुक्तिप्रदानाय च सज्जनानाम्।

अकालमृत्यो: परिरक्षणार्थं वन्दे महाकालमहासुरेशम् ॥

भावार्थ :-

जो भगवान् शंकर संतजनों को मोक्ष प्रदान करने के लिए अवन्तिकापुरी उज्जैन में अवतार धारण किए हैं, अकाल मृत्यु से बचने के लिए उन देवों के भी देव महाकाल नाम से विख्यात महादेव जी को मैं नमस्कार करता हूँ ।