प्रथमे नार्जिता विद्या द्वितीये नार्जितं धनम्।
तृतीये नार्जितं पुण्यं चतुर्थे किं करिष्यसि।।
भावार्थः--
यदि जीवन के प्रथम भाग में विद्या, दूसरे में धन और तीसरे में पुण्य नही कमाया, तो चौथे भाग में क्या करोगे?
अतितृष्णा न कर्तव्या तृष्णां नैव परित्यजेत्।
शनैः शनैश्च भोक्तव्यं स्वयं वित्तमुपार्जितम्।।
भावार्थः--
अत्यधिक इच्छाएँ नहीं करनी चाहिए पर इच्छाओं का सर्वथा त्याग भी नहीं करना चाहिए। अपने कमाये हुए धन का धीरे धीरे उपभोग करना चाहिये !
विद्या विवादाय धनं मदाय शक्तिः परेषां परिपीडनाय।
खलस्य साधोर् विपरीतमेतद् ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय।
भावार्थः--
दुर्जन की विद्या विवाद के लिये, धन उन्माद के लिये और शक्ति दूसरों का दमन करने के लिये होती है। सज्जन इसी को ज्ञान, दान, और दूसरों के रक्षण के लिये उपयोग करते हैं !
ॐ सर्वेशां स्वस्तिर्भवतु सर्वेशां शान्तिर्भवतु
सर्वेशां पूर्णंभवतु सर्वेशां मङ्गलंभवतु
लोका: समस्ता: सुखिनो भवन्तु
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः
भावार्थः--
सब का भला हो! सब को शान्ति मिले! सभी को पूर्णता हासिल हो! सब का मंगल हो! सारे लोक सुखी हों !
नमोऽसत विद्यावितताय चक्रिणे
समस्तधीस्थानकृते सदा नमः।।
पद्मपुराण सृष्टिखण्ड।।
भावार्थः--
जो समस्त विद्याओं के आश्रय, चक्रधारी तथा समस्त ज्ञानेन्द्रियों को व्याप्त करके स्थित हैं (यहां ब्रहमा जी का सर्वव्यापक स्वरूप वर्णित है), उन ब्रहमा जी को सदा नमस्कार है !
यथा ह्यल्पेन यत्नेन च्छिद्यते तरुणस्तरुः।
स एवाऽतिप्रवृध्दस्तु च्छिद्यतेऽतिप्रयत्नतः।।
एवमेव विकारोऽपि तरुणः साध्यते सुखम्।
विवृध्दः साध्यते कृछ्रादसाध्यो वाऽपि जायते।।
भावार्थः--
जैसे छोटे पौधे आसानी से तोड़े जा सकते हैं पर बड़े पेड़ नहीं, वैसे ही रोग का शुरुआत में ही उपचार करना आसान होता है, बढ़ने पर साध्य से असाध्य ही हो जाता है !
स्वस्ति: प्रजाभ्यः परिपालयंतां
न्यायेन मार्गेण महीं महीशाः।
गो ब्राह्मणेभ्यः शुभमस्तु नित्यं
लोकाः समस्ताः सुखिनोभवंतु।।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः
भावार्थः--
शक्ति शाली और सत्तातंत्र द्वारा सभी लोगों की भलाई न्यायूपर्वक हो! ईश्वर सभी विद्वानों और भले लोगों का हर दिन शुभ करें! सारे लोक सुखी हों !