लम्बत्स पिङ्गल जटा मुकुटोत्कटाय दंष्ट्राकरालविकटोत्कटभैरवाय ।
व्याघ्राजिनाम्बरधराय मनोहराय त्रिलोकनाथनमिताय नम: शिवाय ।।
भावार्थ:--
जो लटकती हुई पिङ्गवर्ण जटाओं के सहित मुकुट धारण करने से जो उत्कट जान पडते हैं। तीक्ष्ण दाढों के कारण जो अति विकट और भयानक प्रतीत होते हैं। साथ ही व्याघ्रचर्म धारण किए हुए हैं तथा अति मनोहर हैं तथा तीनों लोकों के अधीश्वर भी जिनके चरणों में झुकते हैं। उन भगवान शिव शंकर को मेरा प्रणाम !
सदुपायकथास्वपण्डितो हृदये दु:खशरेण खण्डित:।
शशिखण्डमण्डनं शरणं यामि शरण्यमीरम्।
भावार्थ:--
हे शम्भो! मेरा हृदय दु:ख रूपी बाण से पीडित है और मैं इस दु:ख को दूर करने वाले किसी उत्तम उपाय को भी नहीं जानता हूँ।
अतएव चन्द्रकला व शिखण्ड मयूरपिच्छ का आभूषण बनाने वाले, शरणागत के रक्षक परमेश्वर आपकी शरण में हूँ। अर्थात् आप ही मुझे इस भयंकर संसार के दु:ख से दूर करें !
तुषाराद्रिसंकाशगौरं गभीरं। मनोभूतकोटिप्रभाश्री शरीरं।।
स्फुरन्मौलिकल्लोलिनी चारुगंगा। लसद्भालबालेन्दु कण्ठे भुजंगा।।
भावार्थ:--
जो हिमाचल के समान गौरवर्ण तथा गंभीर हैं। जिनके शरीर में करोड़ों कामदेवों की ज्योति एवं शोभा है।
जिनके सिर पर सुंदर नदी गंगाजी विराजमान हैं। जिनके ललाट पर द्वितीया का चन्द्रमा और गले में सर्प सुशोभित है !
देवगणार्चितसेवितलिंगम् भावैर्भक्तिभिरेव च लिंगम्।
दिनकरकोटिप्रभाकरलिंगम् तत्प्रणमामि सदाशिवलिंगम्।।
भावार्थ:--
मैं भगवान् सदाशिव के उस लिंग को प्रणाम करता हूं। जो लिंग देवगणों से पूजित तथा भावना और भक्ति से सेवित है
और जिस लिंग की प्रभा-कान्ति या चमक करोड़ों सूर्यों की तरह है।
न जानामि योगं जपं नैव पूजां। नतोऽहं सदा सर्वदा शम्भुतुभ्यं ।
जरा जन्म दुःखौघ तातप्यमानं। प्रभो पाहि आपन्नमामीश शंभो ।।
भावार्थ:--
मैं न तो योग जानता हूं, न जप और न पूजा ही. हे शम्भो, मैं तो सदा-सर्वदा आप को ही नमस्कार करता हूं।
हे प्रभो! बुढ़ापा तथा जन्म के दु:ख समूहों से जलते हुए मुझ दुखी की दु:खों से रक्षा कीजिए। हे शम्भो! मैं आपको नमस्कार करता हूं !
देवमुनिप्रवरार्चितलिंगम् कामदहं करुणाकरलिंगम् ।
रावणदर्पविनाशनलिंगम् तत्प्रणमामि सदाशिवलिंगम् ।।
भावार्थ:--
मैं भगवान् सदाशिव के उस लिंग को प्रणाम करता हूं, जो लिंग देवताओं व श्रेष्ठ मुनियों द्वारा पूजित है। जिसने क्रोधानल से कामदेव को भस्म कर दिया, जो दया का सागर है और जिसने लंकापति रावण के भी दर्प का नाश किया है।
तस्मै नम: परमकारणकारणाय दिप्तोज्ज्वलज्ज्वलित पिङ्गललोचनाय ।
नागेन्द्रहारकृतकुण्डलभूषणाय ब्रह्मेन्द्रविष्णुवरदाय नम: शिवाय ।।
भावार्थ:--
जो शिव कारणों के भी परम कारण हैं। अति दिप्यमान उज्ज्वल एवं पिङ्गल नेत्रों वाले हैं। सर्पों के हार-कुण्डल आदि से भूषित हैं तथा ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्रादि को भी वर देने वालें हैं, उन शिवजी को नमस्कार करता हूँ !
सुताम्रपर्णीजलराशियोगे निबध्य सेतुं विशिखैरसंख्यै:।
श्रीरामचन्द्रेण समर्पितं तं रामेश्वराख्यं नियतं नमामि।।
भावार्थ:--
जो भगवान् शंकर सुन्दर ताम्रपर्णी नामक नदी व समुद्र के संगम में श्री रामचन्द्र जी के द्वारा अनेक बाणों से या वानरों द्वारा पुल बांधकर स्थापित किये गये हैं।
उन्हीं श्रीरामेश्वर नामक शिव को मैं नियम से नमस्कार करता हूँ !
प्रचण्डं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं।अखण्डं अजं भानुकोटिप्रकाशं।।
त्रय: शूलनिर्मूलनं शूलपाणिं। भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यं।।
भावार्थ:--
प्रचंड, श्रेष्ठ तेजस्वी, परमेश्वर, अखण्ड, अजन्मा, करोडों सूर्य के समान प्रकाश वाले, तीनों प्रकार के शूलों को निर्मूल करने वाले, हाथ में त्रिशूल धारण किए, भाव के द्वारा प्राप्त होने वाले भवानी के पति श्री शंकरजी को मैं भजता हूं।
सर्वसुगन्धिसुलेपितलिंगम् बुद्धिविवर्द्धनकारणलिंगम् ।
सिद्धसुरासुरवन्दितलिंगम् तत्प्रणमामि सदाशिवलिंगम्। ।
भावार्थ:--
मैं भगवान् सदाशिव के उस लिंग को प्रणाम करता हूं, जो सभी प्रकार के सुगन्धित द्रव्यों से लिप्त है। अथवा सुगन्धयुक्त नाना द्रव्यों से पूजित है, और जिसका पूजन व भजन बुद्धि के विकास में एकमात्र कारण है तथा जिसकी पूजा सिद्ध, देव व दानव हमेशा करते हैं !