आर्यभट्ट

आर्यभट्ट

आर्यभट्ट

जन्म: 476 अश्मक, महाराष्ट्र, भारत
मृत्यु: 550 (उम्र 74)
राष्ट्रीयता: भारतीय
शिक्षा: नालंदा विश्वविद्यालय
किताबें | रचनाएँ : आर्यभटीय, आर्यभट सिद्धांत, π का अन्वेषण

आर्यभट (जन्म 476 -  मृत्यु 550) प्राचीन भारत के एक महान ज्योतिषविद् और गणितज्ञ थे। इन्होंने आर्यभटीय ग्रंथ की रचना की जिसमें ज्योतिषशास्त्र के अनेक सिद्धांतों का प्रतिपादन है। इसी ग्रंथ में इन्होंने अपना जन्मस्थान कुसुमपुर और जन्मकाल शक संवत् 398 लिखा है। बिहार में वर्तमान पटना का प्राचीन नाम कुसुमपुर था लेकिन आर्यभट का कुसुमपुर दक्षिण में था, यह अब लगभग सिद्ध हो चुका है।

एक अन्य मान्यता के अनुसार उनका जन्म महाराष्ट्र के अश्मक देश में हुआ था। उनके वैज्ञानिक कार्यों का समादर राजधानी में ही हो सकता था। अतः उन्होंने लम्बी यात्रा करके आधुनिक पटना के समीप कुसुमपुर में अवस्थित होकर राजसान्निध्य में अपनी रचनाएँ पूर्ण की।

आर्यभट ने अपनी खगोलीय खोजों के बाद सार्वजनिक घोषणा की कि पृथ्वी 365 दिन, 6 घंटे, 12 मिनट और 30 सेकंड में सूर्य का एक चक्कर लगाती है। उनकी इस खोज की देश भर में सराहना हुई और उन्हें प्रोत्साहन मिला।  तेईस(23) वर्ष की उम्र में उन्होंने ‘आर्यभटीय’ ग्रंथ की रचना की। यह एक विलक्षण ग्रंथ है और संस्कृत में पद्यबद्ध है। इसमें 118 श्लोक हैं, जो तत्कालीन गणित का संक्षिप्त विवरण देते हैं। आर्यभट के अनुसार पृथ्वी एक महायुग में 1,58,22,37,500 बार घूमती है। आर्यभट ने गणित के नए-नए नियम खोजे। ऐसा प्रतीत होता है कि वे शून्य का चिहृ जानते थे। पाई (π) का मान उन्होंने 3.1622 निकाला, जो आधुनिक मान के बराबर है। उन्होंने बड़ी संख्याओं को संक्षेप में लिखने केलिए ‘अक्षरांक’ विधि की खोज की। जैसे 1 के लिए अ, 100 के लिए इ, 10,000 के लिए उ तथा 10 अरब के लिए ए इत्यादि।

आर्यभट्ट की तुलना ‘भारतीय गणित के सूर्य’ के रूप में की गई है। यह तुलना कोई अकारण नहीं है। वास्तव में भारतीय गणित व खगोल-शास्त्र का उद्भव कैसे हुआ, इस बारे में प्रामाणिक जानकारी नहीं है; पर वेदों में इस संबंध में तमाम बातें वर्णित हैं। समय के साथ अनेक ऋषियों ने व्यावहारिक उद्देश्यों अर्थात् पंचांग निर्माण, नक्षत्र विभाजन, मुहूर्तों का निर्धारण, ग्रहण आदि का पूर्वानुमान लगाने के लिए अनेक विधियाँ व सिद्धांत विकसित कर लिये थे। पर समय के साथ ये पैतामह सिद्धांत, वासिष्ठ सिद्धांत, रोमक सिद्धांत, पौलिष सिद्धांत पुराने पड़ते जा रहे थे और इनके आधार पर जो गणनाएँ होती थीं, उनमें और वास्तविकता में अंतर आ जाता था। इन त्रुटियों को सुधारने और भारतीय गणित व खगोल-शास्त्र को आधुनिकतम रूप देने का कार्य आर्यभट्ट प्रथम ने किया। अनुमानों के अनुसार, उनका जन्म 13 अप्रैल, 476 को हुआ था और इसी के आधार पर यूनेस्को ने उनकी 1500वीं जयंती मनाई थी। जन्म-तिथि की ही तरह उनके माता-पिता, कुल आदि के बारे में भी जानकारी नहीं है; पर उनके ही एक श्लोक के अनुसार उनका जन्म वर्तमान बिहार राज्य की राजधानी पटना, जो उस समय पाटलिपुत्र के नाम से प्रसिद्ध थी, के पास कुसुमपुर में हुआ था। लेकिन आर्यभट का कुसुमपुर दक्षिण में था, यह अब लगभग सिद्ध हो चुका है।

 इसी प्रकार उन्होंने अपने एक ग्रंथ में यह लिखा था कि जब आर्यभट्ट 23 वर्ष के थे, तब कलियुग के 3,600 वर्ष बीत चुके थे। इस आधार पर उनकी जन्म-तिथि की गणना हुई। वह काल गुप्त काल अर्थात् भारत का स्वर्णिम युग था। यह माना जाता है कि आर्यभट्ट ने कम-से-कम तीन ग्रंथों की रचना की थी। पर इनमें से एक ही अर्थात् ‘आर्यभटीय’ उपलब्ध है, पर वह उन्हें महान् गणितज्ञ सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है। 121 श्लोकोंवाले इस ग्रंथ में प्रारंभ के 16 श्लोकों में विभिन्न परिचय दिए गए हैं । गणित संबंधी 33 श्लोक हैं, जो

‘गणित पाद’ कहलाता है। इसमें वर्गमूल, घनमूल, त्रिकोणादि क्षेत्रफल, ज्याअंतर, प्रकाश-छाया से संबंधित प्रश्न, अनिर्दिष्ट समीकरण आदि वर्णित हैं। इसमें 1,100,10,000 आदि को वर्ग स्थान माना गया है तथा 10,1000,1,00,000 को अवर्ग माना गया है; क्योंकि इनका वर्गमूल पूर्णांक नहीं होता है। आर्यभट्ट अपने गणित को संक्षेप में व्यक्त करने में कुशल थे 

और उन्होंने विभिन्न अक्षरों को संख्यात्मक मान दिए थे— 

क=1 

ख=2

ग=3 

घ=4

ङ=5

च=6

छ=7

ज=8

झ=9

ञ=10

ट=11

ठ=12

ड=13

ढ=14

ण=15

त=16

थ=17 

द=18

ध=19

न=20

प=21

फ=22

ब=23

भ=24

म=25

य=30

र=40

ल=50

व=60

श=70

ष=80

स=90

ह=100

इसी प्रकार उन्होंने स्वरों को भी मान दिए थे—

अ=1

इ=100

उ=10000

ऋ=1000000

लृ=100000000

ए=10000000000

ऐ=1000000000000

ओ=100000000000000

औ=10000000000000000 उपर्युक्त कोडों का उपयोग करते हुए वे संख्याओं को इस प्रकार व्यक्त कर लेते थे— ख्युघृ=खु+यु+घृ खु=2×10000=20000 यु=30×10000=300000 घृ=4×1000000=4000000 इस प्रकार 4320000 को ख्युघृ द्वारा व्यक्त किया जा सकता है। आर्यभट्ट ने  (पाई)का मान भी निकाला था। उनके अनुसार, यह 3.1416 था। पर बाद में उन्होंने इस मान का प्रयोग न करके10 का प्रयोग किया, जो 3.1622 आता है। इस प्रकार वे  (पाई) के मान के बहुत करीब थे और उन्होंने इसे अपरिमेय संख्या मान लिया था। उनका त्रिकोणमिति में भी योगदान गजब का था। उन्होंने ज्या अर्थात् Sine की तालिका प्रस्तुत की थी। इसमें उन्होंने 900/24=3045’ के अंतराल पर संभावित मान दरशाए थे। आर्यभट्ट ने आकाश में खगोलीय पिंडों की स्थिति के बारे में विस्तार से चर्चा की थी। उन्होंने पृथ्वी की परिधि 4,967 योजन तथा व्यास 1581 योजन बताया था। एक योजन = 5 मील होता है और इस प्रकार परिधि का माप 24,835 मील हुआ, जो कि आधुनिक वास्तविक मान 24,902 मील के काफी निकट है।

आर्यभट्ट द्वारा प्रतिपादित अन्य सिद्धांत इस प्रकार हैं—

1. पृथ्वी, चंद्रमा व अन्य ग्रह सूर्य के प्रकाश से परावर्तित होकर चमकते।

2. ग्रहों का परिक्रमा कक्ष अंडाकार है। 3. एक वर्ष में 365 दिन 6 घंटे, 12 मिनट तथा 30 सेकंड होते हैं। यह वास्तविक मान से थोड़ा ही भिन्न है। उस समय सूर्यग्रहण व चंद्रग्रहण को लोग राक्षसराज राहु व केतु का प्रभाव मानते थे, पर आर्यभट्ट ने इनके सही कारणों की व्याख्या की थी। उन्होंने पौराणिक मान्यताओं के विपरीत यह बतलाया था कि पृथ्वी अपने अक्ष पर घूमती है। आर्यभट्ट ने अनेक मामलों में क्रांतिकारी विचार दिए। इस कारण उनके समकालीन व तत्काल बाद के विद्वान् जैसे ब्रह्मगुप्त, वराह मिहिर आदि ने उनकी अवधारणाओं को स्वीकार नहीं किया। इसका एक उदाहरण यह है कि पौराणिक मान्यताओं के अनुसार काल का विभाजन इस प्रकार था— एक कल्प = 14 मन्वंतर + 6 महायुग = एक हजार युग एक मन्वंतर = 71 महायुग एक महायुग = 43,20,000 वर्ष आर्यभट्ट ने इसे सरल करके इस प्रकार प्रस्तुत किया— एक कल्प = 14 मन्वंतर = 1008 महायुग एक मन्वंतर = 72 महायुग एक महायुग = 43,20,000 वर्ष, पौराणिक मान्यता के विपरीत आर्यभट्ट ने बतलाया कि महायुग के सभी युग बराबर होंगे अर्थात् सतयुग, त्रेतायुग, द्वापर तथा कलियुग में प्रत्येक में 10,80,000 वर्ष होंगे। कालांतर में ‘आर्यभटीय’ गुरुकुलों में पढ़ाया जाने लगा। अनुमानों के अनुसार, 520 ईसवी में उनका निधन हो गया। 

आर्यभट ने आकाश में खगोलीय पिंड की स्थिति के बारे में भी एक व्यवस्थित ज्ञान दिया। उन्होंने पृथ्वी की परिधि 24,835 मील बताई, जो आधुनिक मान 24,902 मील के मुकाबले बेहतरीन संभावित मान है। आर्यभट का विश्वास था कि आकाशीय पिंडों के आभासी घूर्णन धरती के अक्षीय घूर्णन के कारण संभव हैं। यह सौरमंडल की प्रकृति या स्वभाव की महत्त्वपूर्ण अवधारणा है। परंतु इस विचार को त्रुटिपूर्ण मानकर बाद के विचारकों ने इसे छोड़ दिया था। आर्यभट पृथ्वी-सूर्य की त्रिज्या के संबंध में खगोलीय ग्रहों की त्रिज्या देते हैं। उनका मत है कि चंद्रमा तथा अन्य ग्रह सूर्य से परावर्तित प्रकाश द्वारा चमकते हैं। आश्चर्यजनक रूप से वे यह विश्वास करते हैं कि ग्रहों की कक्षाएँ अंडाकार हैं।  आर्यभट ने सूर्यग्रहण तथा चंद्रग्रहण के सही कारणों की व्याख्या की है, जबकि उनसे पहले तक लोग इन ग्रहणों का कारण राक्षस राहु और केतु को मानते थे। आर्यभट ने ज्योतिष के क्षेत्र में भी पहली बार कई क्रांतिकारी विचार प्रस्तुत किए। वे पहले भारतीय वैज्ञानिक थे, जिन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है और नक्षत्रों का गोलक स्थिर है। पौराणिक मान्यता इसके विपरीत थी, इसलिए बाद के वराहमिहिर, ब्रह्मगुप्त आदि ज्योतिषियों ने उनकी इस सही मान्यता को भी स्वीकार नहीं किया। आर्यभट विश्व की सृष्टि और इसके प्रलय-चक्र में विश्वास नहीं करते थे। उन्होंने काल को अनादि तथा अनंत माना है। वे निश्चित ही एक क्रांतिकारी विचारक थे। श्रुति, स्मृति और पुराणों की परंपरा के विरोध में सही विचार प्रस्तुत करके उन्होंने बड़े साहस का परिचय दिया था और भारत में वैज्ञानिक अनुसंधान की स्वस्थ परंपरा स्थापित की। आर्यभट ने अपने ग्रंथ में किसी ज्योतिषी, गणितज्ञ या शासक का वर्णन नहीं किया। उनका ‘आर्यभटीय’ नामक ग्रंथ भारतीय गणित और ज्योतिष का एक विशुद्ध वैज्ञानिक ग्रंथ है। उनके सम्मान में भारत ने अपने प्रथम कृत्रिम उपग्रह का नाम ‘आर्यभट’ रखा। खगोल विज्ञान, खगोल भौतिकी और वायुमंडलीय विज्ञान में अनुसंधान के लिए नैनीताल के निकट एक संस्थान का नाम आर्यभट प्रेक्षण विज्ञान अनुसंधान संस्थान रखा गया और दूसरों के वैज्ञानिकों द्वारा सन् 2009 में खोजी गई बैक्टीरिया की एक प्रजाति का नाम उनके नाम पर ‘बैसिलस आर्यभट’ रखा गया।

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