जॉर्ज अर्नेस्ट स्टॉल

जॉर्ज अर्नेस्ट स्टॉल

जॉर्ज अर्नेस्ट स्टॉल

जन्म: 21 अक्तूबर, 1660 (जर्मनी)
मृत्यु: 14 मई, 1734 (जर्मनी)
राष्ट्रीयता: जर्मन

फ्लोजिस्टन सिद्धांत गलत सिद्ध हो चुका है। अनेक वैज्ञानिक ऐसे होते हैं, जिनके सिद्धांत गलत सिद्ध हो जाते हैं। पर इस कारण उनके कृतित्व का ऐतिहासिक महत्त्व कम नहीं होता है। वे इतिहास में अपना स्थान बना जाते हैं। ऐसे ही एक वैज्ञानिक थे जॉर्ज अर्नेस्ट स्टॉल।

उनका जन्म 21 अक्तूबर, 1660 को अस्पाक, बावरिया, जर्मनी में हुआ था। उनके पिता प्रोटेस्टेंट मत के पादरी थे। जेना में उनकी पढ़ाई चली। चिकित्सा-शास्त्र का अध्ययन पूरा करने के पश्चात् उन्होंने वहीं पर सन् 1683 तक पढ़ाया। सन् 1693 में हॉल विश्वविद्यालय की आधारशिला रखी गई और शीघ्र ही स्टॉल वहाँ पर चिकित्सा-शास्त्र के प्रोफेसर बनकर आए।

इसी क्रम में उन्होंने पाठ्यक्रम में रसायन-शास्त्र विषय शामिल कराया। स्टॉल एक कुशल चिकित्सक थे और सन् 1716 से लेकर मृत्युपर्यंत वे बर्लिन में रहते हुए प्रशिया के शासक फ्रेडरिक प्रथम के चिकित्सक रहे। उन्होंने चिकित्सा-विज्ञान संबंधी विषयों पर भी खूब लिखा; पर वह उतना महत्त्वपूर्ण नहीं था। उससे अधिक योगदान उन्होंने रसायन-शास्त्र के क्षेत्र में किया था।

उन्होंने दहन प्रक्रिया में फ्लोजिस्टन सिद्धांत को सामने रखा था। ‘फ्लोजिस्टन’ शब्द उन्होंने ग्रीक शब्द फ्लोगस से बनाया था, जिसका अर्थ होता है—लौ। उन्होंने फ्लोजिस्टन एक अदृश्य पदार्थ को माना था, जो दहन प्रक्रिया के समय जलनेवाली वस्तु से बाहर आ जाता है। इस काल्पनिक पदार्थ के बारे में लोग पहले भी चर्चा कर रहे थे; पर स्टॉल ने दहन प्रक्रिया में इसे अनिवार्य तत्त्व माना। इसकी सहायता से उन्होंने दहन प्रक्रिया की व्याख्या की।

उनका मानना था कि जब किसी धातु या अन्य तत्त्व जैसे—फास्फोरस को जलाया या तपाया जाता है तो उनसे फ्लोजिस्टन निकल जाता है। उन्होंने यह भी समझाया कि जब उपर्युक्त की विपरीत प्रक्रिया अर्थात् रिडक्शन होता है तो यह वापस आ जाता है।

उस समय के रसायन-शास्त्री उपर्युक्त सिद्धांत को आजमाने लगे। उस समय धातु को शुद्ध रूप में प्राप्त करने हेतु अयस्क को चारकोल के साथ मिलाकर तपाया जाता है। उस आधार पर यह माना जाने लगा कि कार्बन में फ्लोजिस्टन प्रचुर मात्रा में पाया जाता है, क्योंकि कार्बन को जलाने से अवशेष नहीं के बराबर बचता है; जबकि अन्य पदार्थों को जलाने से काफी अवशेष बचता है।

अपने तर्क को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने बताया कि जब धातुओं को जलाया या तपाया जाता है तो उनका भार कम हो जाता है, क्योंकि उनसे फ्लोजिस्टन निकल जाता है। इस प्रकार जब वापस शुद्ध धातु या अन्य तत्त्व अपने मूल रूप में प्राप्त होता है तो उसका भार बढ़ जाता है, क्योंकि उसमें फ्लोजिस्टन वापस आ जाता है।

हालाँकि स्टॉल को अच्छी तरह से यह ज्ञात था कि दहन की प्रक्रिया के लिए वायु आवश्यक है; पर फिर भी उन्होंने अपने इस सिद्धांत को आगे बढ़ाया। उस समय के परिवेश में इस सिद्धांत को आमतौर पर माना जाने लगा। इस समय इस फ्लोजिस्टन पदार्थ को शुद्ध रूप से अलग करने के प्रयासों के बारे में नहीं सोचा गया। इसे ताप की ही भाँति माना गया, जिसके आ जाने से तापमान बढ़ जाता है। इसे उछाल के गुणों के रूप में भी माना जाने लगा और यह निश्चित किया गया कि किसी पदार्थ में फ्लोजिस्टन आ जाने से उसके भार में अंतर आ जाता है।

फ्लोजिस्टन सिद्धांत गलत था, पर फिर भी यह लगभग एक शताब्दी तक माना जाता रहा। यही नहीं, इसके आधार पर रसायन संबंधी जो मत विकसित हुए उससे वैज्ञानिक समाज सशक्त हुआ और इसके आधार पर रासायनिक परिवर्तनों की व्याख्या की जाती रही। स्टॉल ने आजीवन परिश्रम किया और लेखन किया। उनकी पच्चीस रचनाएँ महत्त्वपूर्ण मानी गईं। अन्य कीमियागीरों की भाँति उन्होंने भी अन्य धातुओं से सोना तैयार करने के प्रयास किए।

अपने प्रयोगों से प्राप्त ज्ञान के आधार पर वे लगातार व्याख्यान देते रहे। 14 मई, 1734 को जॉर्ज अर्नेस्ट स्टॉल का बर्लिन में निधन हो गया। बाद में लैवोजियर ने फ्लोजिस्टन सिद्धांत को निराधार साबित कर दिया और उसके ठीक विपरीत सिद्धांत विकसित किया, जिसके अनुसार दहन प्रक्रिया में ऑक्सीजन की अहम व अनिवार्य भूमिका होती है।

दहन में या तपाने में धातु या अन्य तत्त्व के साथ ऑक्सीजन जुड़ जाती है, जिसे ‘ऑक्सीकरण’ कहा जाता है और ऑक्साइड का निर्माण होता है। इसके विपरीत रिडक्शन में ऑक्सीजन निकल जाती है और धातु या तत्त्व मूल रूप में प्राप्त होता है। पर फिर भी, स्टॉल के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता है।

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