जन्म: | 10-03-1628 (इटली) |
मृत्यु: | 29-11-1694 |
राष्ट्रीयता: | इटालियन |
शरीर में स्थित सूक्ष्म रक्त-नलिकाओं का पश्चिम में पहले-पहल अध्ययन करनेवाले मार्सेलो माल्पिघी का जन्म संभवतः 10 मार्च, 1628 को इटली के बोलोग्ना शहर के पास क्रैवलकोर में हुआ था।
माल्पिघी ने बोलोग्ना विश्वविद्यालय से दर्शन-शास्त्र में स्नातक की उपाधि प्राप्त की थी और फिर सन् 1653 में चिकित्सा-शास्त्र में भी स्नातक की उपाधि प्राप्त की। उनके एक शिक्षक मसारी ने नौ सदस्यों की एक अकादमी गठित की थी, जो शरीर के विभिन्न अंगों का छेदन करके उनका अवलोकन करती थी और फिर उन पर चर्चा करती थी।
माल्पिघी को उनकी प्रतिभा व रुचि को ध्यान में रखते हुए इस अकादमी का पहले सदस्य बनाया गया और फिर उनका विवाह भी मसारी की बहन से हो गया। सन् 1655 में वे बोलोग्ना विश्वविद्यालय के लेक्चरर बने। उन्होंने वहाँ पर तर्कशास्त्र का अध्ययन प्रारंभ किया।
सन् 1656 में उन्हें पीसा विश्वविद्यालय में सैद्धांतिक चिकित्सा-शास्त्र विभाग में चेयर पर आमंत्रित किया गया। वहाँ पर वे अनेक विद्वानों के संपर्क में आए और उनका अनुसंधान कार्य आगे बढ़ता गया। सन् 1659 में उन्हें बोलोग्ना विश्वविद्यालय में सैद्धांतिक चिकित्सा-शास्त्र विषय पर विशेष व्याख्याता नियुक्त किया गया। माइक्रोस्कोप अर्थात् सूक्ष्मदर्शी का आविष्कार उन दिनों नई चीज थी। मात्र 17 वर्ष की उम्र में ही जब माल्पिघी ने दर्शन-शास्त्र की पढ़ाई प्रारंभ की थी, तभी से सूक्ष्मदर्शी उनका हमसफर बन गया था और वे उसकी सहायता से अवलोकन किया करते थे।
सन् 1662 में वे मेसिना विश्वविद्यालय में चिकित्सा-शास्त्र के प्रमुख के पद पर आसीन हुए, पर जल्दी ही वे फिर 1666 में बोलोग्ना विश्वविद्यालय आ गए। 2 अक्तूबर, 1667 को रॉयल सोसाइटी, लंदन के सह-सचिव हेनरी ओल्डेनबर्ग ने माल्पिघी से निवेदन किया कि वे सोसाइटी को अपने किसी रुचिकर कार्य या किसी अन्य व्यक्ति के ऐसे ही कार्य के बारे में बताकर सदस्यों का ज्ञानवर्द्धन करें। इसके साथ ही माल्पिघी के रॉयल सोसाइटी के साथ पत्र-व्यवहार का जो सिलसिला प्रारंभ हुआ, उसने अनेक ज्ञानवर्द्धक पुस्तकों का रूप ले लिया। सन् 1668 में वे रॉयल सोसाइटी के फेलो चुने गए।
सन् 1660 में माल्पिघी का पहला व महानतम प्रयोग प्र्रारंभ हुआ, जो 1661 की गरमियों तक चला। यह प्रयोग फेफड़ों के बारे में जानकारी प्राप्त करने के उद्देश्य से प्रारंभ किया गया था। उस समय फेफड़ों के बारे में अल्प व गलत जानकारियाँ थीं। माल्पिघी ने कुत्तों के फेफड़ों की चीर-फाड़ करके दिसंबर 1660 में निष्कर्ष निकाला कि फेफड़े मुख्यतः झिल्ली जैसी नलिकाओं से बने होते हैं और उनमें मुख्यतः वायु ही भरी होती है। इसके बाद उन्होंने मेढकों के फेफड़ों को काटा और उनका भी सूक्ष्मदर्शी द्वारा अध्ययन किया। इस क्रम में अन्य जानकारियाँ तो उभरकर आईं ही, कैपिलरीज के बारे में भी जानकारियाँ उभरकर आईं। अब तक पश्चिमी विज्ञान को केवल धमनियों व शिराओं का ही ज्ञान था। नई-नई जानकारियों से माल्पिघी का आत्मविश्वास और बढ़ा तथा उन्होंने आगे और प्रयोग किए। उन्होंने अपने सूक्ष्मदर्शी से रक्त और उसमें विद्यमान कणों का भी अध्ययन किया। उन्होंने जिह्वा, त्वचा, त्वचा के नीचे की संरचनाओं का भी विस्तार से अध्ययन किया और विस्तार से समझाया।
माल्पिघी ने शरीर के तंत्रिका तंत्र का भी अध्ययन किया। उन्होंने दरशाया कि यह तंत्रिका तंत्र फाइबरों (रेशों) के गुच्छों जैसा लगता है तथा यह एक व्यवस्थित रूप से मेरु रज्जु को मस्तिष्क से जोड़ता है। अपने सूक्ष्मदर्शी की सहायता से उन्होंने लीवर का भी अध्ययन किया। उन्होंने दरशाया कि यह एक ग्लैंड (ग्रंथि) है, जो स्राव उत्पन्न करता है। उन्होंने आगे सोचा कि उसके आगे ले जाने हेतु एक नलिका (डक्ट) भी होनी चाहिए। इस प्रकार उन्होंने गॉल ब्लेडर के अस्तित्व व भूमिका का पता लगाया। इन सबके लिए उन्होंने अनेक प्राणियों पर अनेक प्रयोग किए।
उनके समकालीन एक वैज्ञानिक ने शरीर में गुर्दे के अस्तित्व व भूमिका के बारे में कुछ जानकारियाँ उनसे पूर्व ही प्राप्त कर ली थीं। माल्पिघी ने इस संबंध में आगे अनुसंधान किया और बताया कि मूत्र उत्सर्जन में इन गुर्दों की अहम भूमिका होती है। इसी क्रम में उन्होंने तिल्ली की संरचना व भूमिका को भी सभी के सामने रखा। माल्पिघी ने मनुष्यों ही नहीं वरन् कीटों पर भी अनुसंधान किया। उन्होंने रेशम के कीड़ों पर अनुसंधान किया और उसकी संरचना के बारे में विस्तार से बतलाया। उन्होंने शरीर की संरचना जैसे वायु नली की उपस्थिति, के बारे में बतलाया। साथ ही उसके हृदय, जो अनेक चेंबरों वाला होता है, के बारे में बतलाया। उसके शरीर में स्थित तंत्रिकाओं व रेशम ग्रंथियों का अध्ययन किया। उन्होंने इसके लार्वा का भी अध्ययन किया। पर श्वसन-तंत्र के बारे में अधिक जानकारी नहीं दे पाए। भ्रूण-विज्ञान के क्षेत्र में भी उन्होंने अनेक अध्ययन किए।
उन्होंने इस संबंध में जानकारी प्राप्त करने के लिए अनेक प्रयोग किए; जैसे अंडों को धूप में रखकर गरम करना। उन्हें आशा थी कि इससे चूजे निकल आएँगे। भ्रूण में प्राणी के विभिन्न अंग किस प्रकार विकसित होते हैं, यह अध्ययन भी उन्होंने किया। उन्होंने बताया कि भ्रूण का हृदय, मस्तिष्क आदि कैसे बढ़ते हैं। माल्पिघी ने पौधों पर भी व्यापक अनुसंधान किया और उसे दो खंडों में सचित्र समझाया। तनों में विकसित होनेवाले वार्षिक छल्लों के बारे में भी बतलाया। अपनी पुस्तक में, जिसका एक खंड सन् 1675 में प्रकाशित हुआ था और दूसरा 1679 में, उन्होंने पौधों के विभिन्न अंगों जैसे—पत्तों, फूलों, जड़ों आदि के बारे में समझाया।
उन्होंने पत्तों की विशेष भूमिका के बारे में भी बतलाया कि इसी से पौधों की वृद्धि होती है। माल्पिघी 25 वर्ष तक बोलोग्ना में रहे और अनुसंधान करते रहे। पर दुर्भाग्यवश सन् 1684 में उनके घर में भयानक आग लग गई और इसके कारण उनके उपकरण, पुस्तकें तथा बहुमूल्य पांडुलिपियाँ जल गईं। इस दुर्घटना के तत्काल बाद नए पोप ने कार्यभार सँभाला और उनसे अनुरोध किया कि वे उनके निजी चिकित्सक का दायित्व सँभालें। माल्पिघी को अनुसंधान कार्य छोड़कर इस राजकीय दायित्व को निभाना नहीं भाया। पर अनुसंधान के लिए फिर से पूरा ढाँचा खड़ा करना संभव नहीं था।
अंततः भरे मन से उन्होंने निजी चिकित्सक का दायित्व स्वीकारा। सन् 1691 में वे रोम में जाकर रहने लगे। वहीं पर 29 नवंबर, 1694 को उनका निधन हो गया।