जन्म: | 505 ईसवी उज्जैन मध्यप्रदेश, भारत |
मृत्यु: | 587 ईसवी |
पिता: | आदित्य दास |
माता: | सत्यवती |
राष्ट्रीयता: | भारतीय |
शिक्षा: | गणितज्ञ व खगोलविद् |
किताबें | रचनाएँ : | पंचसिद्धांतिका, बृहत्संहिता |
भारत के स्वर्णिम युग माने जानेवाले गुप्तकाल में ही एक और गणितज्ञ व खगोलविद् का जन्म हुआ था, जिनका नाम वराह मिहिर था। इनके जन्म व मृत्यु के बारे में प्रामाणिक जानकारी नहीं है; पर यह माना जाता है कि इनका जन्म 505 ईसवी में हुआ था और आर्यभट्ट के जीवनकाल में ये थे।
प्राप्त जानकारियों के अनुसार, वराह मिहिर के पिता का नाम आदित्य दास और माता का नाम सत्यवती था। उनकी शिक्षा-दीक्षा व कर्मभूमि उज्जैन ही रही। वे सम्राट् विक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक थे।
उस समय जैन धर्म उत्कर्ष पर था; पर वराह मिहिर शिव, विष्णु, सूर्य आदि देवों की उपासना करते थे, यह उनके ग्रंथों में उल्लिखित है। अपने ज्ञान व अद्भुत कृतित्व के कारण वराह मिहिर अपने जीवनकाल में ही अति लोकप्रिय हो गए थे। तत्कालीन अरबी यात्री अल-बरूनी ने वराह मिहिर की भूरि-भूरि प्रशंसा की थी। उस समय तक भारतीय-यूनानी ज्ञान का परस्पर संगम हो चुका था। इस कारण वराह मिहिर के कृतित्व पर यूनानी दर्शन का भी प्रभाव था। वराह मिहिर ने जो ग्रंथ लिखे, उनसे उनके ज्योतिष व खगोल-शास्त्र के ज्ञान की झलक मिलती है। उनके एक ग्रंथ ‘पंचसिद्धांतिका’ को ज्योतिष व खगोल विद्या का प्रामाणिक ग्रंथ माना जाता है। इसमें उन्होंने उस समय से पूर्व प्रचलित पाँच ज्योतिष सिद्धांतों पर प्रकाश डाला। यह ग्रंथ तीन खंडों में है। पहला खंड खगोल विद्या पर है और शेष दो ज्योतिष विद्या पर हैं। वराह मिहिर ने फलित ज्योतिष पर अधिक ध्यान केंद्रित किया। वराह मिहिर ने आर्यभट्ट द्वारा प्रतिपादित सभी सिद्धांतों को नहीं माना।
उन्होंने यह तो माना कि पृथ्वी गोल है, पर यह भी स्पष्ट किया कि इससे किसी स्थान विशेष के धरातल पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। धरातल पर पर्वत, पेड़, नदियाँ आदि विद्यमान हैं। उन्होंने बतलाया कि यदि यमकोटि विश्व के एक ओर स्थित है तो रूम (रोम) दूसरी ओर स्थित है। पर एक स्थान ऊपर, नीचे या तिरछा नहीं है। वराह मिहिर ने आर्यभट्ट के इस सिद्धांत को नहीं माना कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है। उन्होंने लिखा कि यदि कोई पक्षी उड़ते हुए पृथ्वी के घूमने से विपरीत दिशा में चला जाए तो वह वापस कैसे आएगा! वराह मिहिर के एक अन्य ग्रंथ ‘बृहत्संहिता’ में लगभग 4,000 श्लोक हैं। इसमें विविध विषयों पर विस्तृत चर्चाएँ की गई हैं यथा खगोलीय पिंडों का वर्णन उनकी गतियाँ, जल, वायु आदि संबंधी घटनाएँ। साथ ही इस ग्रंथ से तत्कालीन राज्यों, जनपदों, रीति-रिवाजों, विश्वासों आदि के बारे में पर्याप्त जानकारियाँ मिलती हैं। पाठक इसे पढ़कर उस समय के परिवेश को समझ सकता है। वराह मिहिर मात्र गणितज्ञ या खगोल-विज्ञानी नहीं थे। वे भूजल-विज्ञानी भी थे। अपने ग्रंथ में उन्होंने जैव संकेतकों का भी वर्णन किया है। उन्होंने तीस प्रजातियों के पौधों तथा आधा दर्जन प्राणियों का वर्णन किया है, जो गीलेपन की ओर उन्मुख होते हैं। इनमें अनेक प्रकार के मेढक और कीड़े भी शामिल हैं। उनकी तकनीक से निरक्षर व्यक्ति भी पानी की तलाश कर सकता है।
उन्होंने बताया कि भू-जल की स्थिति समझने में दीमक कुशल होते हैं। वे बहुत गहरे जाकर जल-पटल तक पहुँचते हैं और पानी लाकर अपनी बाँबियों को गीला रखते हैं। इसी तरह कुछ वृक्ष की जड़ें बहुत नीचे तक जाकर जल-पटल से पानी खींच लाती हैं। वराह मिहिर को कृषि-विज्ञान व ऋतु-विज्ञान का भी पर्याप्त ज्ञान था। उन्होंने मिट्टी को उपजाऊ बनाने, खाद बनाने, फलों व फूलों की अधिक उपज पाने, उन्नत बीज तैयार करने तथा पेड़-पौधों पर मौसम के प्रभावों का भी वृहद् वर्णन किया है। उनके अनुसार, बहुत अधिक व बहुत कम तापक्रम एवं सूखी हवाएँ पौधों में रोग उत्पन्न कर सकती हैं। इससे पत्तियाँ पीली पड़ जाती हैं, कलियाँ मुरझा जाती हैं तथा टहनियाँ सूख जाती हैं। उन्होंने इनका उपचार भी बतलाया है। इसी प्रकार यदि सूखी जलवायु में भी पौधों की अच्छी वृद्धि हो तो यह मानना चाहिए कि पृथ्वी के नीचे पर्याप्त भू-जल है। पौधों की स्थिति को देखकर वे अकाल या वर्षा का अनुमान लगाने में कुशल थे। वराह मिहिर एक उदार विद्वान् थे।
उस समय यूनानी लोगों को म्लेच्छ मानकर उनसे घृणा की जाती थी। पर वराह मिहिर ने न केवल यूनानी ज्ञान को आत्मसात् किया वरन् यूनानी भाषा के शब्दों या उनसे मिलते-जुलते शब्दों का भरपूर उपयोग किया और यूनानी ज्योतिष के सिद्धांतों को समझाया। उन्होंने यह राय भी दी कि आकाशीय पिंडों की स्थिति को समझकर पंचांग को लगातार परिवर्तित करना चाहिए। अनेक त्रिकोणमितीय सूत्रों को प्रतिपादित करनेवाले वराह मिहिर ने आर्यभट्ट द्वारा प्रतिपादित ज्या तालिका को और अधिक शुद्ध बनाया। अनुमानों के अनुसार, सन् 587 में उनका निधन हो गया।