विलियम हार्वे

विलियम हार्वे

विलियम हार्वे

जन्म: फोल्कस्टोन, केंट, इंग्लैंड
मृत्यु: लंदन, इंग्लैंड
जीवनसंगी: एलिजाबेथ ब्राउने
राष्ट्रीयता: ब्रिटिश

अंग्रेजी चिकित्सा-शास्त्र आज उन्नत माना जाता है, पर मध्य युग में बुरी तरह पिछड़ा हुआ था। प्राचीन काल के यूनानी-रोमन चिकित्सक गैलेन ने जो सिद्धांत व विधियाँ विकसित की थीं, वे ही लगभग 1,400 वर्ष तक ज्यों-की-त्यों प्रचलित रहीं। इनको सुधारने का क्षेय श्रेष्ठ अंग्रेज चिकित्सक विलियम हार्वे को जाता है।

विलियम हार्वे का जन्म 1 अप्रैल, 1578 को इंग्लैंड के केंट स्थित फोकस्टोन शहर में हुआ था। उसके पिता थॉमस हार्वे एक धनवान् व्यापारी थे और साथ ही गण्यमान्य नागरिक भी थे। बाद में वे शहर के मेयर भी रहे।

विलियम अपने नौ भाई-बहनों में सबसे बड़े थे। उस परिवार की एक अन्य खूबी यह रही कि विलियम के अन्य भाई भी व्यवसाय या राजनीति में सफल रहे और परिवार में धन की हमेशा वृद्धि होती रही।

विलियम का बचपन ग्रामीण इलाकों में बीता। 10 वर्ष की उम्र में सन् 1588 में वे कंटरबरी स्थित किंग्स स्कूल में पढ़ने गए। वहाँ वे पाँच वर्ष तक पढ़े और फिर सोलहवें वर्ष में वे कैंब्रिज स्थित कैंस स्कूल में पढ़ने गए। यहाँ उनकी रुचि चिकित्सा-शास्त्र के अध्ययन में विकसित हो गई। सन् 1597 में उन्होंने स्नातक की उपाधि प्राप्त की, पर तभी वे मलेरिया के कारण लंबे समय तक बीमार हो गए।

अब वे चिकित्सा-शास्त्र की पढ़ाई के लिए पूरे यूरोप में विख्यात पादुआ विश्वविद्यालय में गए। वहाँ पर उन्हें एक प्रख्यात शरीर रचना-शास्त्री के साथ कार्य करने का अवसर मिला। उन्होंने उनके निर्देशन में शरीर के अंगो की चीर-फाड़ व कार्य-प्रणाली देखी। उन्हें हृदय को धड़कते हुए देखने का भी अवसर मिला और उसमें प्रवेश करने और उससे निकलनेवाले रक्त के गुणों का अध्ययन करने का मौका भी मिला।

जैसा कि बताया जा चुका है कि वह युग चिकित्सा-शास्त्र में ठहराव का युग था और ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में अरस्तू ने यह बतलाया था कि रक्त वाहिनियों में रक्त व वायु दोनों होते हैं। बाद में दूसरी शताब्दी में गैलेन ने बतलाया था कि रक्त वाहिनियों में केवल रक्त बहता है। पर फिर भी, यह माना जाता था कि वायु फेफड़े से हृदय के दाएँ भाग में प्रवेश करती है। पर उस समय तक किसी को यह अनुमान नहीं था कि रक्त का प्रवाह पूरे शरीर में निरंतर चलता रहता है और यह एक प्रकार की रक्त वाहिकाओं यथा धमनियों से हृदय से निकलता है और पूरे शरीर में विचरण करने के बाद दूसरे प्रकार की रक्त वाहिकाओं जैसे—शिरा से हृदय में दोबारा प्रवेश करता है। यह माना जाता था कि इसके आगे बढ़ने के लिए बल रक्त वाहिकाओं के संकुचन से मिलता है। हृदय के पंप की भाँति व्यवहार का किसी को ज्ञान नहीं था। यह भी माना जाता था कि शिराओं में रक्त लीवर (यकृत) से आता है

16वीं शताब्दी में शरीर रचना-शास्त्रियों ने रक्त के पूरे शरीर में भ्रमण की कल्पना कर ली थी और यह मान लिया था कि यह हृदय व फेफड़ों से होकर गुजरता है। 16वीं शताब्दी के मध्य में पादुआ विश्वविद्यालय में कार्यरत शरीर रचना-शास्त्री वैसेलियस ने शरीर-रचना का काफी हद तक सही ज्ञान हासिल कर लिया था। धीरे-धीरे हृदय में स्थित वॉल्व की भी जानकारी मिल गई। पर फिर भी, हृदय की रचना व कार्य-प्रणाली के बारे में काफी सारे भ्रम थे।

पादुआ में अपने 28 महीनों के अध्ययन के दौरान विलियम हार्वे ने अपनी प्रतिभा का भरपूर उपयोग किया और अप्रैल 1602 में ‘डॉक्टर ऑफ मेडिसिन’ का डिप्लोमा प्राप्त किया। अब वे इंग्लैंड लौट आए और उनके पास शरीर-रचना का पूरा ज्ञान, शरीर की साधारण कार्य-प्रणाली का ज्ञान तथा अरस्तू के काल में विकसित थेरापियों का ज्ञान था। उन्हें पादुआ तथा वेनिस में क्लीनिक में कार्य करने का भी अनुभव मिल चुका था।

अब वे लंदन में प्रैक्टिस भी करने लगे और कैंब्रिज विश्वविद्यालय में डॉक्टरों के कॉलेज से भी संबद्ध हो गए। इससे पूर्व उनका विवाह एलिजाबेथ ब्राउने से हो गया, जो ब्रिटेन के राजा जेम्स प्रथम के चिकित्सक की पुत्री थीं।

अब उन्हें ससुराल पक्ष की भी सहायता मिलने लगी। सन् 1607 में उन्हें फैलोशिप मिली और वे प्रतिष्ठित अस्पतालों में कार्य करने लगे। उन्होंने चिकित्सा-शास्त्र पर व्याख्यान भी दिए। जल्दी ही वे एक बड़े अस्पताल के प्रभारी बन गए, जिसमें 12 वार्ड व 200 बिस्तर थे। उस समय में यह बहुत बड़ा अस्पताल माना जाता था।

उन्होंने बड़े-बड़े लोगों का उपचार किया, जिसमें सर फ्रांसिस बेकन शामिल थे। रोगी उन पर भरोसा करते थे, हालाँकि उनकी नई-नई खोजों व विचारों से लोग भ्रमित भी हो जाते थे। एक विशेष बात यह भी थी कि शरीर-रचना व कार्य-प्रणाली के बारे में उनके विचार नए व उन्नत थे, पर उपचार के मामले में वे बहुत सावधानी बरतते थे। उस समय कुछ विश्वसनीय औषधियाँ ही थीं और रोग की सही-सही पहचान असंभव-सी हो जाती थी।

हार्वे ने अनेक तकनीकें विकसित कीं, पर उनका इस्तेमाल करने में वे सहमते थे। जब सन् 1625 में ब्रिटिश सम्राट् बीमार पड़े तो उपचार करनेवाले डॉक्टरों के दल का नेतृत्व डॉ. विलियम हार्वे ने किया था। जब सम्राट् का देहांत हो गया तो उनके प्रिय बर्मिंघम के ड्यूक पर आरोप लगा कि उन्होंने राजा को कैद कर रखा था और ऐसा उपचार कराया, जो डॉक्टरों की राय के अनुरूप नहीं था। इस आरोप की जाँच संसद् द्वारा कराई गई। उसमें डॉ. हार्वे प्रमुख गवाह थे और उनके वक्तव्य के आधार पर ड्यूक बरी हो गए।

नए राजा चार्ल्स प्रथम ने उन्हें अपना निजी चिकित्सक बनाया और पिछले राजा की देख-रेख के लिए पुरस्कार भी दिया। पर नए राजा का स्वास्थ्य बहुत अच्छा था और जब तक उन्हें फाँसी पर नहीं चढ़ाया गया तब तक उन्हें चिकित्सक की आवश्यकता नहीं पड़ी। पर चार्ल्स प्रथम ने डॉ. हार्वे के अनुसंधान कार्यों में भरपूर सहयोग उपलब्ध कराया। उस समय के सभी चिकित्सक सलाह हेतु डॉ. हार्वे के पास आते थे। वे अथक परिश्रम किया करते थे। अस्पताल व कॉलेज के दायित्वों के अतिरिक्त वे अनुसंधान में भी बहुत समय लगाया करते थे

वे हर प्राणी की चीर-फाड़ करके शरीर-रचनाओं की तुलना किया करते थे। उन्होंने कीड़ों, केंचुओं, सरीसृपों, पक्षियों, स्तनपायी प्राणियों की चीर-फाड़ की और शरीर-रचनाओं की तुलना की। वे पोस्टमार्टम का कोई अवसर नहीं छोड़ते थे तथा रोग के कारण की तह तक चले जाते थे। वे अपने रोगियों का मनोवैज्ञानिक अध्ययन भी करते थे। दुर्भाग्यवश सन् 1642 में जब इंग्लैंड में गृहयुद्ध शुरू हो गया तो डॉ. विलियम हार्वे को हर प्रकार की क्षति उठानी पड़ी। उनके तमाम शोधपत्र नष्ट कर दिए गए।

ओलिवर क्रॉमवेल की पार्टी के लोगों ने उन्हें अस्पताल के दायित्व से मुक्त कर दिया। इस कारण उनके तरीकों, सोच आदि सभी से आनेवाली पीढ़ी पूरी तरह अवगत नहीं हो पाई। सन् 1636 में राजा चार्ल्स ने जब एक प्रतिनिधिमंडल जर्मनी भेजा था तो चिकित्सक के रूप में हार्वे उनके साथ थे। उन्होंने दस महीने की लंबी यात्रा की थी और विएना, प्राग, वेनिस, रोम, नेपल्स आदि जगहों पर गए। नरेनबर्ग में वे विख्यात चिकित्सक कैस्पर हॉफमैन से मिले और उनसे शरीर में रक्त-प्रवाह संबंधी अपने सिद्धांत पर चर्चा की। हालाँकि उनके सिद्धांतों व विचारों से उस समय लोग सहमत नहीं होते थे, पर फिर भी डॉ. हार्वे पूरी तन्मयता से चीजों को समझाते थे।

सन् 1642 के गृहयुद्ध में डॉ. हार्वे अपने राजा चार्ल्स व दोनों राजकुमारों के साथ ऑक्सफोर्ड में रहे। जब पराजित राजा ने आत्म-समर्पण कर दिया तो डॉ. हार्वे उनके साथ रहना चाहते थे। पर उन्हें अलग कर दिया गया।

डॉ. हार्वे को राजनीति में कोई रुचि नहीं थी, पर वे राजा का पूरा ध्यान रखना चाहते थे। जब राजा को सन् 1649 में फाँसी पर चढ़ा दिया गया तो डॉ. हार्वे पूरी तरह टूट गए। पर उन्होंने अपना अनुसंधान कार्य जारी रखा। उनका अनुसंधान एक बड़ी पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुआ। उसमें वर्णित तथ्य उस समय अजूबे थे। उन्होंने मुर्गी के चूजे के विकास तथा हिरण के भ्रूण के विकास को बड़ी कुशलता से समझाया था। उस समय माइक्रोस्कोप भी नहीं था। विलियम हार्वे के अनुसंधान परिणामों में सबसे महत्त्वपूर्ण था हृदय का सटीक विवरण।

उन्होंने पहले-पहल पश्चिमी जगत् को समझाया कि हृदय खोखली मांसपेशियों से बना है। जब यह कार्य करता है तो एक बार यह सिकुड़ता है और इस प्रक्रिया में रक्त बाहर निकलता है। इस प्रक्रिया में उसका रंग फीका पड़ जाता है। इसके बाद ये मांसपेशियाँ जब विश्राम करती हैं तो हृदय के अंदर का आयतन बढ़ जाता है और रक्त उसमें भर जाता है। इस प्रक्रिया में उसका रंग लाल हो जाता है। इस तरह हृदय पंप की भाँति कार्य करता है।

विलियम हार्वे ने हृदय द्वारा पंप किए जानेवाले रक्त की मात्रा की गणना भी की। उन्होंने पाया कि हर बार की सिकुड़ने-फूलने की प्रक्रिया में हृदय 2 औंस रक्त छोड़ता है। एक मिनट में यह प्रक्रिया औसतन 72 बार होती है। इस प्रकार हृदय प्रतिदिन 1,500 गैलन रक्त पूरे शरीर में प्रवाहित कर देता है। इतना ही रक्त हृदय में वापस आ जाता है।

अपने प्रयोगों के परिणामों द्वारा उन्होंने सिद्ध कर दिया कि धमनियाँ व शिराएँ रक्त का एकतरफा मार्ग हैं। इनकी सुचारु कार्य-प्रणाली में वॉल्व की अहम भूमिका होती है। जैसा कि पहले बताया जा चुका है, विलियम हार्वे के अन्य भाइयों ने व्यापार के क्षेत्र में असाधारण सफलता प्राप्त की थी। 

कुल मिलाकर परिवार में धन-संपत्ति का अंबार लगा था। पर वे बूढ़े व बीमार हो चले थे। नई राजसत्ता भी उन्हें परेशान करती थी और संदेह की दृष्टि से देखती थी। उनके अंतिम दिन लंदन के बाहर स्थित उनके भाइयों के मकानों में बीते। हालाँकि विदेशी चिकित्सा विद्वानों से उनका पत्र-व्यवहार चलता रहा। अपने कॉलेज को उन्होंने एक नया भवन व पुस्तकालय दान किया। उनकी पुस्तकें व पांडुलिपियाँ भी वहीं पर सुरक्षित रखी गईं; पर दुर्भाग्यवश लंदन में सन् 1666 में लगी आग में वे सब स्वाहा हो गईं। अंतिम समय पर उन्हें बहुत दर्द होता था। लकवे के कारण वे बोल भी नहीं पाते थे।

3 जून, 1857 को उनका देहांत हो गया। पहले एक पारिवरिक समारोह में उन्हें दफनाया गया। बाद में सन् 1883 में जब उनका महत्त्वपूर्ण कार्य सामने आया तो उन्हें पुनः ससम्मान दफनाया गया। संगमरमर की बनी उनकी विशाल मूर्ति भी लगाई गई। चिकित्सक उनकी वृद्धावस्था की तसवीर जो बची थी, से प्रेरणा पाते रहे।

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