Shlok Gyan

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Shlok-gyan--169

आढ् यतो वापि दरिद्रो वा दुःखित सुखितोऽपिवा ।

निर्दोषश्च सदोषश्च व्यस्यः परमा गतिः ॥

भावार्थ :-

चाहे धनी हो या निर्धन, दुःखी हो या सुखी, निर्दोष हो या सदोष – मित्र ही मनुष्य का सबसे बड़ा सहारा होता है ।

Shlok-gyan--170

वसेत्सह सपत्नेन क्रुद्धेनाशुविषेण च ।

न तू मित्रप्रवादेन संवसेच्छत्रु सेविना ॥

भावार्थ :-

शत्रु और क्रुद्ध महाविषधर सर्प के साथ भले ही रहें, पर ऐसे मनुष्य के साथ कभी न रहे जो ऊपर से तो मित्र कहलाता है, लेकिन भीतर-भीतर शत्रु का हितसाधक हो ।

Shlok-gyan--171

न चातिप्रणयः कार्यः कर्त्तव्योप्रणयश्च ते ।

उभयं हि महान् दोसस्तस्मादन्तरदृग्भव ॥

भावार्थ :-

मृत्यु-पूर्व बालि ने अपने पुत्र अंगद को यह अन्तिम उपदेश दिया था – तुम किसी से अधिक प्रेम या अधिक वैर न करना, क्योंकि दोनों ही अत्यन्त अनिष्टकारक होते हैं, सदा मध्यम मार्ग का ही अवलम्बन करना ।

Shlok-gyan--148

आढ् यतो वापि दरिद्रो वा दुःखित सुखितोऽपिवा ।

निर्दोषश्च सदोषश्च व्यस्यः परमा गतिः ॥

भावार्थ :-

चाहे धनी हो या निर्धन, दुःखी हो या सुखी, निर्दोष हो या सदोष – मित्र ही मनुष्य का सबसे बड़ा सहारा होता है ।

Shlok-gyan--149

वसेत्सह सपत्नेन क्रुद्धेनाशुविषेण च ।

न तू मित्रप्रवादेन संवसेच्छत्रु सेविना ॥

भावार्थ :-

शत्रु और क्रुद्ध महाविषधर सर्प के साथ भले ही रहें, पर ऐसे मनुष्य के साथ कभी न रहे जो ऊपर से तो मित्र कहलाता है, लेकिन भीतर-भीतर शत्रु का हितसाधक हो ।

Shlok-gyan--150

न चातिप्रणयः कार्यः कर्त्तव्योप्रणयश्च ते ।

उभयं हि महान् दोसस्तस्मादन्तरदृग्भव ॥

भावार्थ :-

मृत्यु-पूर्व बालि ने अपने पुत्र अंगद को यह अन्तिम उपदेश दिया था – तुम किसी से अधिक प्रेम या अधिक वैर न करना, क्योंकि दोनों ही अत्यन्त अनिष्टकारक होते हैं, सदा मध्यम मार्ग का ही अवलम्बन करना ।

Shlok-gyan--151

यस्मात्क्षरमतीतोऽतोहमक्षरादपि चोत्तमः ।

अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः ॥

भावार्थ:- 

मैं (ईश्वर) नाशवंत जड समुदाय (क्षेत्र) से सर्वथा भिन्न हूँ, और अविनाशी जीवात्मा से भी उत्तम हूँ; इस लिए लोगों में तथा वेदों में पुरुषोत्तम के नाम से प्रसिद्ध हूँ ।

Shlok-gyan--152

ऐश्वर्यस्य समग्रस्य वीर्यस्य यशसः श्रियः ।

ज्ञानवैराग्ययोश्चैव षण्णां भग इतीरणा ॥

 भावार्थ:-

समग्र ऐश्वर्य, शौर्य, यश, श्री, ज्ञान, और वैराग्य इन छे गुणों से “भग” बनता है । (“भगवान” शब्द की व्युत्पत्ति)

Shlok-gyan--153

धर्मजिज्ञासमानानां प्रमाणं प्रथमं श्रुतिः ।

द्वितीयं धर्मशास्त्रं तु तृतीयं लोकसङ्ग्रहः ॥

भावार्थ:-

समान धर्मजिज्ञासा होने के तीन प्रमाण हैं; श्रुति, धर्मशास्त्र और लोकसंग्रह ।

Shlok-gyan--154

ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति ।

भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारुढानि मायया ॥

भावार्थ:-

हे अर्जुन ! ईश्वर सब प्राणियों के ह्रदय में विराजमान है । शरीररुप यंत्र पर आरुढ हुए सब प्राणियों को, अपनी माया के ज़रीये (हरेक के कर्मों के मुताबिक) वह घूमाता रहता है ।