Shlok Gyan

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Shlok-gyan--259

चत्वारि राज्ञा तु महाबलेना वर्ज्यान्याहु: पण्डितस्तानि विद्यात् ।

अल्पप्रज्ञै: सह मन्त्रं न कुर्यात दीर्घसुत्रै रभसैश्चारणैश्च ॥

भावार्थ :-

अल्प बुद्धि वाले, देरी से कार्य करने वाले, जल्दबाजी करने वाले और चाटुकार लोगों के साथ गुप्त विचार-विमर्श नहीं करना चाहिए। राजा को ऐसे लोगों को पहचानकर उनका परित्याग कर देना चाहिए।

Shlok-gyan--260

पन्चाग्न्यो मनुष्येण परिचर्या: प्रयत्नत:।

पिता माताग्निरात्मा च गुरुश्च भरतर्षभ ॥

भावार्थ :-

माता, पिता, अग्नि, आत्मा और गुरु इन्हें पंचाग्नी कहा गया है। मनुष्य को इन पाँच प्रकार की अग्नि की सजगता से सेवा-सुश्रुषा करनी चाहिए। इनकी उपेक्षा करके हानि होती है।

Shlok-gyan--261

त्रिविधं नरकस्येदं द्वारम नाशनमात्मन: ।

काम: क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्।।

भावार्थ :-

काम, क्रोध, और लोभ – ये आत्मा का नाश करने वाले नरक के तीन दरवाजे हैं, अतः इन तीनो को त्याग देना चाहिए।

Shlok-gyan--262

पंचैव पूजयन् लोके यश: प्राप्नोति केवलं ।

देवान् पितॄन् मनुष्यांश्च भिक्षून् अतिथि पंचमान् ॥ 

भावार्थ :-

देवता, पितर, मनुष्य, भिक्षुक तथा अतिथि-इन पाँचों की सदैव सच्चे मन से पूजा-स्तुति करनी चाहिए । इससे यश और सम्मान प्राप्त होता है ।

Shlok-gyan--263

मूर्खशिष्योपदेशेन दुष्टास्त्रीभरणेन च।

दुःखितैः सम्प्रयोगेण पण्डितोऽप्यवसीदति॥

भावार्थ :-

मूर्ख शिष्य को पढ़ाने पर , दुष्ट स्त्री के साथ जीवन बिताने पर तथा दुःखियों- रोगियों के बीच में रहने पर विद्वान व्यक्ति भी दुःखी हो ही जाता है ।

Shlok-gyan--265

दुष्टा भार्या शठं मित्रं भृत्यश्चोत्तरदायकः।

ससर्पे गृहे वासो मृत्युरेव न संशयः॥

भावार्थ :-

दुष्ट पत्नी , शठ मित्र , उत्तर देने वाला सेवक तथा सांप वाले घर में रहना , ये मृत्यु के कारण हैं इसमें सन्देह नहीं करनी चाहिए ।


Shlok-gyan--266

लोकयात्रा भयं लज्जा दाक्षिण्यं त्यागशीलता।

पञ्च यत्र न विद्यन्ते न कुर्यात्तत्र संगतिम् ॥

भावार्थ :-

जिस स्थान पर आजीविका न मिले, लोगों में भय, और लज्जा, उदारता तथा दान देने की प्रवृत्ति न हो, ऐसी पांच जगहों को भी मनुष्य को अपने निवास के लिए नहीं चुनना चाहिए ।

Shlok-gyan--267

कष्टं च खलु मूर्खत्वं कष्ट च खलु यौवनम्।

कष्टात्कष्टतरं चैव परगृहेनिवासनम् ॥

भावार्थ :-

मूर्खता कष्ट है, यौवन भी कष्ट है, किन्तु दूसरों के घर में रहना कष्टों का भी कष्ट है ।

Shlok-gyan--268

परोक्षे कार्यहन्तारं प्रत्यक्षे प्रियवादिनम्।

वर्जयेत्तादृशं मित्रं विषकुम्भं पयोमुखम् ॥

भावार्थ :-

पीठ पीछे काम बिगाड़नेवाले था सामने प्रिय बोलने वाले ऐसे मित्र त्याग देना चाहिए ।

Shlok-gyan--269

चला लक्ष्मीश्चलाः प्राणाश्चले जीवितमन्दिरे।

चलाचले च संसारे धर्म एको हि निश्चलः॥

भावार्थ :-

लक्ष्मी चंचल है, प्राण, जीवन, शरीर सब कुछ चंचल और नाशवान है । संसार में केवल धर्म ही निश्चल है ।