Shlok Gyan

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Shlok-gyan--386

कावेरिकानर्मदयो: पवित्रे समागमे सज्जनतारणाय।

सदैव मान्धातृपुरे वसन्तमोंकारमीशं शिवमेकमीडे् ॥

भावार्थ :-

जो भगवान् शंकर सज्जनों को इस संसार सागर से पार उतारने के लिए कावेरी और नर्मदा के पवित्र संगम में स्थित मान्धता नगरी में सदा निवास करते हैं, उन्हीं अद्वितीय ‘ओंकारेश्वर’ नाम से प्रसिद्ध श्री शिव की मैं स्तुति करता हूँ ।

Shlok-gyan--387

पूर्वोत्तरे प्रज्वलिकानिधाने सदा वसन्तं गिरिजासमेतम्।

सुरासुराराधितपादपद्मं श्रीवैद्यनाथं तमहं नमामि ॥

भावार्थ :-

जो भगवान् शंकर पूर्वोत्तर दिशा में चिताभूमि वैद्यनाथ धाम के अन्दर सदा ही पार्वती सहित विराजमान हैं, और देवता व दानव जिनके चरणकमलों की आराधना करते हैं, उन्हीं ‘श्री वैद्यनाथ’ नाम से विख्यात शिव को मैं प्रणाम करता हूँ ।

Shlok-gyan--388

महत: परित: प्रसर्पतस्तमसो दर्शनभेदिनो भिदे।

दिननाथ इव स्वतेजसा हृदयव्योम्नि मनागुदेहि न:॥

भावार्थ :-

जो भगवान् शंकर दक्षिण दिशा में स्थित अत्यन्त रमणीय सदंग नामक नगर में अनेक प्रकार के भोगों तथा नाना आभूषणों विभूषित हैं, जो एकमात्र सुन्दर पराभक्ति तथा मुक्ति को प्रदान करते है, उन्हीं अद्वितीय श्री नागनाथ नामक शिव की मैं शरण में जाता हूँ ।

Shlok-gyan--389

सरस्वति नमौ नित्यं भद्रकाल्यै नमो नम: ।

वेदवेदान्तवेदाङ्गविद्यास्थानेभ्य एव च ॥

भावार्थ :-

सरस्वती को नित्य नमस्कार है, भद्रकाली को नमस्कार है और वेद, वेदान्त, वेदांग तथा विद्याओं के स्थानों को प्रणाम है ।

Shlok-gyan--390

सरस्वति महाभागे विद्ये कमललोचने ।

विद्यारूपे विशालाक्षि विद्यां देहि नमोऽस्तु ते ॥

भावार्थ :-

हे महाभाग्यवती ज्ञानरूपा कमल के समान विशाल नेत्र वाली, ज्ञानदात्री सरस्वती ! मुझको विद्या दो, मैं आपको प्रणाम करता हूँ ।

Shlok-gyan--391

लक्ष्मीर्मेधा धरा पुष्टिर्गौरी तुष्टि: प्रभा धृति: ।

एताभि: पाहि तनुभिरष्टाभिर्मां सरस्वति ॥

भावार्थ :-

हे सरस्वती ! लक्ष्मी, मेघा, धरा, पुष्टि, गौरी, तुष्टि, प्रभा, धृति - इन आठ मूर्तियों से मेरी रक्षा करो ।

Shlok-gyan--392

आशासु राशीभवदङ्गवल्लीभासैव दासीकृतदुग्धसिन्धुम् ।

मन्दस्मितैर्निन्दितशारदेन्दुं वन्देऽरविन्दासनसुन्दरी त्वाम् ॥

भावार्थ :-

हे कमल पर बैठनेवाली सुन्दरी सरस्वती ! तुम सब दिशाओं में पुंजीभूत हुई अपनी देहलता की आभा से ही क्षीर-समुद्र को दास बनानेवाली और मन्द मुसकान से शरद् ऋतु के चन्द्रमा को तिरस्कृत करनेवाली हो, आपको मैं प्रणाम करता हूँ ।

Shlok-gyan--393

वीणाधरे विपुलमङ्गलदानशीले भक्तार्तिनाशिनि विरिञ्चिहरीशवन्द्ये ।

कीर्तिप्रदेऽखिलमनोरथदे महार्हे विद्याप्रदायिनि सरस्वतिनौमि नित्यम् ॥

भावार्थ :-

हे वीणा धारण करनेवाली, अपार मंगल देनेवाली, भक्तों के दुःख छुड़ाने वाली, ब्रह्मा, विष्णु और शिव से वन्दित होनेवाली कीर्ति तथा मनोरथ देनेवाली, पूज्यवरा और विद्या देनेवाली सरस्वती ! आपको नित्य प्रणाम करता हूँ ।

Shlok-gyan--394

श्वेताब्जपूर्णविमलासनसंस्थिते हे श्वेताम्बरावृतमनोहरमञ्जुगात्रे ।

उद्यन्मनोज्ञसितपङ्कजमञ्जुलास्ये विद्याप्रदायिनि सरस्वति नौमि नित्यम् ॥

भावार्थ :-

हे श्वेत कमलों से भरे हुए निर्मल आसन पर विराजनेवाली, श्वेत वस्त्रों से ढके सुन्दर शरीरवाली, खिले हुए सुन्दर श्वेत कमल के समान मंजुल मुखवाली और विद्या देनेवाली सरस्वती ! आपको नित्य प्रणाम करता हूँ ।

Shlok-gyan--395

मोहान्धकारभरिते ह्रदये मदीये मात: सदैव कुरु वासमुदारभावे ।

स्वीयाखिलावयवनिर्मलसुप्रभाभि: शीघ्रं विनाशय मनोगतमन्धकारम् ॥

भावार्थ :-

हे उदार बुद्धिवाली माँ ! मोहरूपी अन्धकार से भरे मेरे हृदय में सदा निवास करो और अपने सब अंगो की निर्मल कान्ति से मेरे मन के अन्धकार का शीघ्र नाश करो ।