Shlok Gyan

Total Shlokas:- 657

Shlok-gyan--546

यस्तु सञ्चरते देशान् सेवते यस्तु पण्डितान् ।

तस्य विस्तारिता बुद्धिस्तैलबिन्दुरिवाम्भसि ॥

भावार्थ :-

वह व्यक्ति जो विभिन्न देशों में घूमता है और विद्वानों की सेवा करता है । उस व्यक्ति की बुद्धि का विस्तार उसी तरह होता है, जैसे तेल का बून्द पानी में गिरने के बाद फैल जाता है ।

Shlok-gyan--547

द्वौ अम्भसि निवेष्टव्यौ गले बद्ध्वा दृढां शिलाम् ।

धनवन्तम् अदातारम् दरिद्रं च अतपस्विनम्॥

भावार्थ :-

दो प्रकार के लोग होते हैं, जिनके गले में पत्थर बांधकर उन्हें समुद्र में फेंक देना चाहिए । पहला, वह व्यक्ति जो अमीर होते हुए दान न करता हो । दूसरा, वह व्यक्ति जो गरीब होते हुए कठिन परिश्रम नहीं करता हो ।

Shlok-gyan--548

विद्वत्वं च नृपत्वं च नैव तुल्यं कदाचन ।

स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते ॥

भावार्थ :-

विद्वान और राजा की कोई तुलना नहीं हो सकती है । क्योंकि राजा तो केवल अपने राज्य में सम्मान पाता है, जबकि विद्वान जहाँ-जहाँ भी जाता है वह हर जगह सम्मान पाता है ।

Shlok-gyan--549

शतेषु जायते शूरः सहस्रेषु च पण्डितः ।

वक्ता दशसहस्रेषु दाता भवति वा न वा॥

भावार्थ :-

सैकड़ों में कोई एक शूर-वीर होता है, हजारों में कोई एक विद्वान होता है, दस हजार में कोई एक वक्ता होता है और दानी लाखों में कोई विरला हीं होता है ।

Shlok-gyan--550

शोचन्ति जामयो यत्र विनश्यत्याशु तत्कुलम्।

न शोचन्ति नु यत्रता वर्धते तद्धि सर्वदा॥

भावार्थ :-

जिस कुल में बहू-बेटियां क्लेश भोगती हैं वह कुल शीघ्र नष्ट हो जाता है। किन्तु जहाँ उन्हें किसी तरह का दुःख नहीं होता वह कुल सर्वदा बढ़ता ही रहता है।

Shlok-gyan--551

परो अपि हितवान् बन्धुः बन्धुः अपि अहितः परः ।

अहितः देहजः व्याधिः हितम् आरण्यं औषधम् ॥

भावार्थ :-

कोई अपरिचित व्यक्ति भी अगर आपकी मदद करे, तो उसे परिवार के सदस्य की तरह महत्व देना चाहिए । और अगर परिवार का कोई अपना सदस्य भी आपको नुकसान पहुंचाए तो उसे महत्व देना बंद कर देना चाहिए । ठीक उसी तरह जैसे शरीर के किसी अंग में कोई बीमारी हो जाए, तो वह हमें तकलीफ पहुँचाने लगती है । जबकि जंगल में उगी हुई औषधी हमारे लिए लाभकारी होती है ।

Shlok-gyan--552

तडागकृत् वृक्षरोपी इष्टयज्ञश्च यो द्विजः ।

एते स्वर्गे महीयन्ते ये चान्ये सत्यवादिनः ॥

भावार्थ :-

तालाब बनवाने, वृक्षरोपण करने, अैर यज्ञ का अनुष्ठान करने वाले द्विज को स्वर्ग में महत्ता दी जाती है, इसके अतिरिक्त सत्य बोलने वालों को भी महत्व मिलता है ।

Shlok-gyan--553

दातव्यं भोक्तव्यं धनविषये सञ्चयो न कर्तव्यः ।

पश्येह मधुकरिणां सञ्चितमर्थं हरन्त्यन्ये ॥

भावार्थ :-

धन दूसरों को दिया जाना चाहिए, अथवा उसका स्वयं भोग करना चाहिए । किंतु उसका संचय नहीं करना चाहिए । ध्यान से देखो कि मधुमक्खियों के द्वारा संचित धन अर्थात् शहद दूसरे हर ले जाते हैं ।

Shlok-gyan--554

दानं भोगं नाशस्तिस्रो गतयो भवन्ति वित्तस्य ।

यो न ददाति न भुङ्क्ते तस्य तृतिया गतिर्भवति ॥

भावार्थ :-

धन की संभव नियति तीन प्रकार की होती है । पहली है उसका दान, दूसरी उसका भोग, और तीसरी है उसका नाश । जो व्यक्ति उसे न किसी को देता है और न ही उसका स्वयं भोग करता है, उसके धन की तीसरी गति होती है, अर्थात् उसका नाश होना है ।


Shlok-gyan--436

लोभेन बुद्धिश्चलति लोभो जनयते तृषाम् ।

तृषार्तो दुःखमाप्नोति परत्रेह च मानवः ॥

भावार्थ :-

लोभ से बुद्धि विचलित हो जाती है, लोभ सरलता से न बुझने वाली तृष्णा को जन्म देता है । जो तृष्णा से ग्रस्त होता है वह दुःख का भागीदार बनता है, इस लोक में और परलोक में भी ।