Shlok Gyan

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shlok-gyan--84

यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम्‌ ।

असम्मूढः स मर्त्येषु सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥

भावार्थ :-

जो मुझको अजन्मा अर्थात्‌ वास्तव में जन्मरहित, अनादि (अनादि उसको कहते हैं जो आदि रहित हो एवं सबका कारण हो) और लोकों का महान्‌ ईश्वर तत्त्व से जानता है, वह मनुष्यों में ज्ञानवान्‌ पुरुष संपूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है ।


shlok-gyan--85

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः ।

स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥

भावार्थ :-

श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है, अन्य पुरुष भी वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण कर देता है, समस्त मनुष्य-समुदाय उसी के अनुसार बरतने लग जाता है (यहाँ क्रिया में एकवचन है, परन्तु 'लोक' शब्द समुदायवाचक होने से भाषा में बहुवचन की क्रिया लिखी गई है।


shlok-gyan--86

ज्ञातिभि र्वण्टयते नैव चोरेणापि न नीयते ।

दाने नैव क्षयं याति विद्यारत्नं महाधनम् ॥

भावार्थ :-

यह विद्यारुपी रत्न महान धन है, जिसका वितरण ज्ञातिजनों द्वारा हो नहीं सकता, जिसे चोर ले जा नहीं सकते, और जिसका दान करने से क्षय नहीं होता ।

shlok-gyan--87

सर्वद्रव्येषु विद्यैव द्रव्यमाहुरनुत्तमम् ।

अहार्यत्वादनर्ध्यत्वादक्षयत्वाच्च सर्वदा ॥

भावार्थ :-

सब द्रव्यों में विद्यारुपी द्रव्य सर्वोत्तम है, क्यों कि वह किसी से हरा नहीं जा सकता; उसका मूल्य नहीं हो सकता, और उसका कभी नाश नहीं होता ।

shlok-gyan--88

नास्ति विद्यासमो बन्धुर्नास्ति विद्यासमः सुहृत् ।

नास्ति विद्यासमं वित्तं नास्ति विद्यासमं सुखम् ॥

भावार्थ :-

विद्या जैसा बंधु नहीं, विद्या जैसा मित्र नहीं, (और) विद्या जैसा अन्य कोई धन या सुख नहीं ।


shlok-gyan--112

दानानां च समस्तानां चत्वार्येतानि भूतले ।

श्रेष्ठानि कन्यागोभूमिविद्या दानानि सर्वदा ॥

भावार्थ :-

सब दानों में कन्यादान, गोदान, भूमिदान, और विद्यादान सर्वश्रेष्ठ है ।

Shlok-gyan--115

रूपयौवनसंपन्ना विशाल कुलसम्भवाः ।

विद्याहीना न शोभन्ते निर्गन्धा इव किंशुकाः ॥

भावार्थ :-

रुपसंपन्न, यौवनसंपन्न, और चाहे विशाल कुल में पैदा क्यों न हुए हों, पर जो विद्याहीन हों, तो वे सुगंधरहित केसुडे के फूल की भाँति शोभा नहीं देते ।

shlok-gyan--90

क्षणशः कणशश्चैव विद्यामर्थं च साधयेत् ।

क्षणे नष्टे कुतो विद्या कणे नष्टे कुतो धनम् ॥

भावार्थ :-

एक एक क्षण गवाये बिना विद्या पानी चाहिए; और एक एक कण बचा करके धन ईकट्ठा करना चाहिए । क्षण गवानेवाले को विद्या कहाँ, और कण को क्षुद्र समजनेवाले को धन कहाँ ?


shlok-gyan--91

विद्याभ्यास स्तपो ज्ञानमिन्द्रियाणां च संयमः ।

अहिंसा गुरुसेवा च निःश्रेयसकरं परम् ॥

भावार्थ :-

विद्याभ्यास, तप, ज्ञान, इंद्रिय-संयम, अहिंसा और गुरुसेवा – ये परम् कल्याणकारक हैं ।

shlok-gyan--92

अर्थेन हीनः पुरुषस्त्यज्यते मित्र बान्धवैः |

त्यक्तलोकक्रियाहारः परासुरिव निष्प्रभः ||

भावार्थ :- 

धन हीन व्यक्ति से उसके मित्र तथा रिश्तेदार सम्बन्ध रखना छोड्  देते हैं और इस प्रकार दैनन्दिन सामाजिक व्यवहार से त्यक्त किये जाने के कारण वह् व्यक्ति एक मृत व्यक्ति के समान प्रभा हीन हो जाता है |