Shlok Gyan

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shlok-gyan--93

अप्रमत्तश्च यो राजा सर्वज्ञो विजितेन्द्रियः |

कृतज्ञो   धर्मशीलश्च  स राजा तिष्ठते चिरं  ||

भावार्थ :-

एक राजा (या देश का शासक ) जो विचारशील , सर्वज्ञ, जितेन्द्रिय, धर्मशील तथा जनता के प्रति कृतज्ञ होता है वह् चिरकाल तक सुखपूर्वक शासन करने में सक्षम होता है |


shlok-gyan--94

अप्रत्यक्षाणि  शास्त्राणि  विवादस्तत्र  केवलं |

प्रत्यक्षं ज्योतिषं शास्त्रं चन्द्रार्को यत्र साक्षिणो || 

भावार्थ :-

जिन शास्त्रों में  वर्णित तथा प्रतिपादित सिद्धान्तों का प्रतिफल प्रत्यक्ष दृष्टव्य नहीं होता है , वहां

सदैव विवाद उत्पन्न होता है |  परन्त ज्योतिष शास्त्र के विषय मे ऐसा नहीं होता है , क्योंकि चन्द्र और सूर्य उस के सिद्धान्तों के साक्षी के रूप में सदैव उपस्थित रहते हैं |


shlok-gyan--95

अपूर्वः कोSपि कोपाग्निः सज्जनस्य खलस्य च |

एकस्य शाम्यते स्नेहाद्वर्धतेSन्यस्य वारितः  ||

भावार्थ :-

निःसंदेह  एक सज्जन व्यक्ति और एक दुष्ट व्यक्ति की क्रोधाग्नि अपने आप में विशिष्ट होती है | पहले व्यक्ति (सज्जन ) की क्रोधाग्नि तो स्नेहपूर्ण व्यवहार करने से शान्त हो जाती है पर  इसके विपरीत एक दुष्ट व्यक्ति का क्रोध जितना ही  शान्त करने का प्रयत्न किया जाय उतना ही  अधिक भड्कता  है  |

shlok-gyan--96

अनन्त शास्त्रं बहुलाश्च विद्याः स्वल्पश्च कालो बहुविघ्नताच |

यत्सारभूतं  तदुपासनीयं   हंसो  यथा  क्षीरमिवाम्बुमध्यात् ||

भावार्थ :- 

शास्त्रों की संख्या अनन्त है और विद्यायें भी असंख्य हैं | इस के विपरीत इन्हे  सीखने के लिये हमारे पास समय बहुत थोडा है और बहुत विघ्न-बाधायें भी उपस्थित होती हैं |   अतऐव जिस प्रकार हंस जल में  मिले हुए दूध को प्रथक्  करने की क्षमता रखता है, उसी प्रकार जो विद्या तथा शास्त्र सर्वोत्तम  तथा हितकारी हो उसी का चयन तथा अनुसरण करना ही श्रेयस्कर है |


shlok-gyan--97

अपूज्या यत्र पूज्यन्ते पूज्यानां तु  विमानना  |

त्रीणि  तत्र  प्रवर्तन्ते  दुर्भिक्षं  मरणं  भयं  ||

भावार्थ :- 

उस देश मे जहां अपूजनीय व्यक्तियों का सम्मान और पूजा होती है और पूजनीय व्यक्तियों की अवमानाना होती है, वहां दुर्भिक्ष, अकाल मृत्यु तथा भय युक्त वातावरण , ये तीनों परिस्थितियां सदैव विद्यमान होती हैं |

shlok-gyan--98

अपुत्रत्वं भवच्छ्रेयो न तु स्याद्विगुणः सुतः |

जीवन्नप्यविनीतोSसौ  मृत  एव न संशयः ||

भावार्थ :-

एक अवगुणी पुत्र का पिता होने से तो पुत्र विहीन होना ही  श्रेयस्कर है क्योंकि इस् बात मे कोई संशय नही कि जीवित रहने पर वह् अविनीत तथा  दुष्ट स्वभाव का होने के कारण एक मृत पुत्र के समान ही दुखदायी  होगा |


shlok-gyan--99

अधममित्रकुमित्रसमागमः प्रियवियोगभयानि  दरिद्रता |

अपयशः खलु लोकपराभवो भवति  पापतरोः फलमीदृशं ||

भावार्थ :-  

अधम और नीच मित्रों की संगति का दुष्परिणाम प्रिय जनों का वियोग, दरिद्रता , अपयश तथा समाज में अपमान के रूप में होता है |  निश्चय ही पापरूपी वृक्ष में ऐसे ही फल उत्पन्न होंगे |


shlok-gyan--100

लोभ मूलानि पापानि संकटानि तथैव  च |

लोभात्प्रवर्तते वैरं अतिलोभात्विनश्यति ||

भावार्थ :-

लोभ सभी पापों का तथा विभिन्न संकटों मूल कारण है |  लोभ से वैर उत्पन्न होता है और अत्यन्त लोभ से व्यक्तियों का  विनाश भी हो जाता है |  


shlok-gyan--101

विद्या  मित्रं  प्रवासेषु  भार्या  मित्रं  गृहेषु  च |

व्याधिस्तस्यौषधं मित्रं धर्मो मित्रं मृतस्य च ||

भावार्थ :-

विदेश मे प्रवास के समय विद्वत्ता एक मित्र के समान सहायक होती है , और इसी प्रकार सौम्य पत्नी ग्रहस्थ जीवन में  एक  मित्र के  रूप में  सहायक होती है |   शरीर रोगग्रस्त होने पर एक औषधि मित्र स्वरूप होती है और मृत्यु के पश्चात जीवनकाल मे किया हुआ  धार्मिक आचरण ही  मित्र के समान सहायक होता है |


shlok-gyan--102

वृथा  वृष्टिः समुद्रेषु  वृथा  तृप्तेषु भोजनम् |

वृथा  दानं धनाढ्येषु वृथा दीपो दिवाSपि  च ||

भावार्थ :-

समुद्र के उपर वृष्टि ,  एक भोजन कर के तृप्त हुए व्यक्ति  को पुनः भोजन प्रस्तुत करना , एक धनाढ्य  व्यक्ति को दान देना, तथा सूर्य के प्रकाश में दीपक जलाना , ये सभी कार्य व्यर्थ हैं |