सत्यं माता पिता ज्ञानं धर्मो भ्राता दया सखा |
शान्तिः पत्नी क्षमा पुत्रः षडेते मम बान्धवाः ||
भावार्थ :-
सच बोलना मेरी माता के समान है, ज्ञान प्राप्ति पिता के समान है, धर्म का अनुपालन भाई के समान है , शान्ति पत्नी के समान और क्षमा पुत्र के समान है | ये छः सद्वृत्तियां ही मेरे निकट सम्बन्धी हैं |
अनाहूतः समायातः अनापृष्टस्तु भाषते |
परनिन्दात्मनः स्तुतिश्चत्वारि लघुलक्षणः ||
भावार्थ :-
बिना आमन्त्रित किये ही निकटता बनाने का प्रयत्न करना , बिना पूछे ही बातें करना या
उत्तर देना, अन्य व्यक्तियों की निन्दा करना और स्वयं अपनी प्रशंसा करना, ये चार लक्षण एक
नीच और दुष्ट व्यक्ति के होते हैं |
अनुसूया क्षमा शान्तिः संतोषः प्रियवादिता |
कामक्रोधपरित्यागः शिष्टाचारनिदर्शनं ||
भावार्थ :-
ईर्ष्या और द्वेष् न करना, शान्तिप्रियता, संतोष, प्रियवादिता (मृदल व्यवहार ), काम और क्रोध का परित्याग करना, ये सभी सद्प्रवृत्तियां शिष्ट आचरण की निशानी हैं.
अत्याहारः प्रवासश्च प्रजल्पो नियमग्रहः ।
जनसङ्गश्व लौल्यंच षड्भिः योगो विनश्यति ॥
भावार्थ :-
अति आहार, अधिक श्रम, बहुत बोलना, उपवास, सामान्य लोगों का संग, और स्वादलोलुपता- इनसे योगाभ्यास में बाधा आती है ।
श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् ।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥
भावार्थ :-
श्रवण (उ.दा. परीक्षित), कीर्तन (शुकदेव), स्मरण (प्रह्लाद), पादसेवन (लक्ष्मी), अर्चन (पृथुराजा), वंदन (अक्रूर), दास्य (हनुमान), सख्य (अर्जुन), और आत्मनिवेदन (बलि राजा) – इन्हें नवधा भक्ति कहते हैं ।
आदित्यं गणनाथं च देवीं रुद्रं च केशवम् ।
पञ्चदैवतमिति प्रोक्तं सर्वकार्येषु पूजयेत् ॥
भावार्थ :-
सूर्य, गणपति, देवी, शिव और केशव (विष्णु), इन पाँच देवताओं की हर कार्य में पूजा करनी चाहिए (इसे पंचायतन पूजा कहते हैं) ।
आदित्य मम्बिकां विष्णुं गणनाथं महेश्वरम् ।
गृहस्थं पूजयेत् पञ्च भुक्तिमुक्त्यर्थसिद्धये ॥
भावार्थ :-
भुक्ति (भोग) और मुक्ति, दोनों के लिए गृहस्थ ने सूर्य, देवी, विष्णु, गणेश, और शिव, इन पाँचों की पूजा करनी चाहिए ।
विप्राणां दैवतं शम्भुः क्षत्रियाणां च माधवः ।
वैश्यानां तु भवेद् ब्रह्मा शूद्राणां गणनायकः ॥
भावार्थ :-
ब्राह्मणों के आराध्य देव शिवजी, क्षत्रियों के श्री कृष्ण, वैश्यों के ब्रह्मा, और शूद्रों के आराध्य श्री गणेश हैं ।
त्रयी सांख्यं योगः पशुपतिमतं वैष्णवमिति
प्रभिन्ने प्रस्थाने परमिदमदः पथ्यमिति च ।
रुचिनां वैचित्र्याद्ऋजुकुटिलनानापथजुषां
नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव ॥
भावार्थ :-
त्रयी सांख्य, योग, पाशुपत मत और वैष्णव मत, इत्यादि इन भिन्न, भिन्न प्रस्थानों में से रुचि की विचित्रता के अनुसार कोई एक को श्रेष्ठ और अन्य को कनिष्ठ तप कहेगा ! (पर) सरल, अथवा टेढे मार्ग से जानेवाली सभी नदियाँ, जैसे अंत में समुद्र में जा मिलती है, वैसे हि रुचि वैचित्र्य से भिन्न भिन्न मार्गो का अनुसरण करनेवाले, सभी का अंतिम स्थान आप ही हैं ।
आकाशात् पतितं तोयं यथा गच्छति सागरम् ।
सर्वदेहनमस्कारः केशवं प्रतिगच्छति ॥
भावार्थ :-
आकाश से गिरा हुआ जल, जिस किसी भी प्रकार सागर को हि जा मिलता है; वैसे हि किसी भी रुप की उपासना/नमस्कार, एक हि परमेश्वर को पहुँचती है ।