(आन्येज़े गोंजा बोयाजियू)
जन्म: | 26 अगस्त, 1910 (यूगोस्लाविया) |
मृत्यु: | 5 सितम्बर 1997, (कोलकाता, भारत) |
धर्म : | कैथोलिक |
अवॉर्ड: | नोबल पुरस्कार |
एग्नेस गोनक्सहा बोजाक्सहियु 27 अगस्त 1910 को युगोस्लाविया के शहर स्कोपजे में जन्मी थीं। माता-पिता द्राना और निकोला बोजाक्सहियु अल्बिनियन थे और रोमन कैथोलिक थे। उन्होंने अपने तीसरे बच्चे का स्वागत किया। एगनेस की बड़ी बहन अगा और भाई लजार थे। निकोला एक सफल व्यापारी थे, जो स्कोपजे नगर परिषद के सदस्य भी थे। निकोला चाहते थे कि उनकी बेटियां अच्छी तरह शिक्षित हों।
निकोला की मृत्यु ने बोजाक्सहियु के परिवार को का भाग्य हमेशा के लिए बदल दिया। द्राना अपना खर्च चलाने के लिए सिलाई करने लगी। इसके बावजूद वह जरूरतमंदों की सहायता के लिए अतिरिक्त समय और धन निकाल ही लेती थी। जब और गरीबों से मिलने जाती, एग्नेस उनके साथ होती। मां की दयालुता के ने उसे बहुत प्रभावित किया। बहुत छोटी उम्र में ही एग्नेस पढ़ना, कविताएं लिखना, गाना और प्रार्थना करना पसंद करती थी और टीचर बनना चाहती थी। चौदह साल की हुई, तो समझी वह एक धार्मिक जीवन जीना चाहती हैं 1928 में जब अट्ठारह साल की थी, एग्नेस ने अपना जीवन भगवान और सेवा के लिए समर्पित करने का निर्णय लिया और आयरलैंड के डबलिन में लोरेंटो सिस्टर्स की सभा में शामिल हो गई। एग्नेस भारत के दार्जिलिंग में ननों के लोरेंटो सिस्टर्स के क्रम को स्थापित करने के लिए यहां आ गई।
1931 में एग्नेस ने सिस्टर टेरेसा के रूप में अपनी प्रतिज्ञाऐ ली। उन्हें एक शिक्षिका के रूप में एक स्कूल में नियुक्त किया गया। हर रोज वह बाहर जाती और सड़कों व गलियों में लोगों की पीड़ाओं को देखकर गहरा दुःख अनुभव करती। वह लोगों की सेवा करना चाहती थी, लेकिन लोरेंटो वर्ग की ननों के नियमानुसार आश्रम छोड़ने की मनाई थी।
1946 में सिस्टर टेरेसा ने अपनी आंतरिक आत्मा अपनी आंतरिक आवाज सुन ली और वह स्पष्ट थी कि भगवान उनमें क्या करवाना चाहता है भगवान उनसे क्या करवाना चाहता है? आखिर 1948 में चर्च और आर्डर ऑफ़ लोरेंटो सिस्टर्स ने सिस्टर टेरेसा को लोगों के बीच काम करने की अनुमति दे दी।
नीली बॉर्डर वाली कॉटन की सफेद साड़ी पहने सिस्टर टेरेसा मेडिकल मिशनरी सिस्टर्स से चिकित्सकीय कौशल सीखने के लिए पटना के लिए निकल गई। पटना में वह मृत और बीमार लोगों के घरों का दौरा करती। वह स्थानीय अस्पताल भी जाती और सीखतीं। तीन महीने के भीतर सिस्टर टेरेसा वापस कलकत्ता आ गई। उन्होंने फादर वान एक्जेम एक्स गेम से संपर्क किया, जिन्होंने लिटिल सिस्टर्स ऑफ पुअर्स द्वारा चलाए जा रहे सेंट जोजेफ होम में उनके रहने की व्यवस्था कर दी। कुछ समय तक सिस्टर टेरेसा ने सहायता की और बुजुर्गों की सेवा भी की।
एक दिन 1948 में सिस्टर टेरेसा कोलकत्ता की गलियों में निकल पड़ी। उन्होंने सबसे पहले मलिन बस्ती में जाने का निर्णय लिया और वहां एक स्कूल शुरू किया। सिस्टर टेरेसा उन लोगों को ढूंढ रही थी, जिन्हें सहायता, देखभाल या सहयोग की आवश्यकता है। वह सिहर गई जब उन्होंने गरीबी, बीमारी और बदतर चिकित्सकीय सुविधाओं को देखा।
जब सिस्टर टेरेसा के भीतर आंतरिक संघर्ष चल रहा था, भगवान ने उनका विश्वास एक बार फिर स्थापित कर दिया। सिस्टर टेरेसा की एक विद्यार्थी मैगडालेना गोम्स अपनी दयालु शिक्षिका को भूल नहीं पाई और उनके साथ सेवा के कार्यों में शामिल हो गई। हर दिन वे कोलकत्ता की सड़कों पर निकल जाती, उन लोगों की खोज में, जिन्हें सहायता या देखभाल की जरूरत हैं। सिस्टर टेरेसा की मानवता के लिए प्रेम की शक्ति थी, जो एक साल के अंदर ही दस लड़कियों को उनके पास खींच लाई। उन्होंने जीवन को सेवा के लिए समर्पित कर दिया था। 1949 में सिस्टर टेरेसा ने भारत की नागरिकता लेने का फैसला किया। 1950 में वह मदर टेरेसा बन गई और चर्च ने आदेश दिया कि वह अपने ऑर्डर ऑफ नन्स को शुरू कर सकती हैं, जो मिशनरीज ऑफ चैरिटी के नाम से जाना जाएगा।
चाहे परित्यक्त बच्चे हो, मरते हुए या कुष्ठ रोगी हो, मदर टेरेसा ने सबको भगवान के बच्चों के रूप में देखा उनकी देखभाल की। उन्होंने लोगों को प्रेरित किया कि आगे आए पैसा, मकान, दवाएं और दूसरी जरूरत की चीजें दान करने के लिए। लगभग दस वर्षों में मिशनरीज ऑफ चैरिटी ने भारत में कई जगह होम्स खोलें। दान इकट्ठा करने के लिए दूसरे देशों का दौरा भी किया। एक बार एक विचार आया और उन्होंने मेन्स विंग की स्थापना की, जिसे मिशनरीज ऑफ ब्रदर्स चैरिटी नाम दिया गया। ब्रदर्स उन क्षेत्रों में काम करते थे, जहां सिस्टर प्रवेश नहीं कर सकती थी।
पोप ने 1965 में मिशनरी ऑफ चैरिटी को भारत के बाहर कार्य करने की इजाजत दे दी। मदर टेरेसा ने उत्तरी-दक्षिणी अमेरिका, अफ्रीका, एशिया और यूरोप के लोगों की सेवा करना शुरू कर दिया। उन्हें छठे पोप पॉल के हाथों जॉन ⅩⅩⅢ शांति पुरस्कार प्राप्त हुआ। अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति केनेडी ने उन्हें जोजेफ पी. केनेडी फाउंडेशन अवार्ड से सम्मानित किया। 1973 में धार्मिक क्षेत्र में प्रगति के लिए उन्हें टेम्पलेटन पुरस्कार प्राप्त हुआ, लेकिन उनका सर्वोच्च तो सर्वोच्च तो यश तो 1979 मैं आया, जब उन्हें नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया और तीन महीने के भीतर उन्हें भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से भी सम्मानित कर दिया गया।
सितंबर 1997 मदर टेरेसा ने अंतिम सांस ली और संसार के लिए सच्चे प्रेम और सेवा की विरासत छोड़ गई।
"जिस व्यक्ति को कोई चाहने वाला न हो, कोई ख्याल रखने वाला न हो, जिसे हर कोई भूल चुका हो,मेरे विचार से वह किसी ऐसे व्यक्ति की तुलना में जिसके पास कुछ खाने को न हो,कहीं बड़ी भूख, कही बड़ी गरीबी से ग्रस्त है।"