राम प्रसाद बिस्मिल

राम प्रसाद  बिस्मिल

राम प्रसाद बिस्मिल

(राम, अज्ञात)

जन्म: 11 जून, 1897, शाहजहाँपुर
मृत्यु: 19 दिसम्बर 1927 को गोरखपुर जेल में फांसी
पिता: मुरलीधर
माता: मूलमती
राष्ट्रीयता: भारतीय
धर्म : हिन्दू
शिक्षा: राजकीय विद्यालय, शाहजहाँपुर (आठवीं पास)

प्रारम्भिक जीवन एवं शिक्षा :--

11 जून 1897 को उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर शहर के खिरनीबाग मुहल्ले में जन्मे रामप्रसाद अपने पिता मुरलीधर और माता मूलमती की दूसरी सन्तान थे। उनसे पूर्व एक पुत्र पैदा होते ही मर चुका था। बालक की जन्म-कुण्डली व दोनों हाथ की दसो उँगलियों में चक्र के निशान देखकर एक ज्योतिषी ने भविष्यवाणी की थी - "यदि इस बालक का जीवन किसी प्रकार बचा रहा, यद्यपि सम्भावना बहुत कम है, तो इसे चक्रवर्ती सम्राट बनने से दुनिया की कोई भी ताकत रोक नहीं पायेगी।'' माता-पिता दोनों ही सिंह राशि के थे और बच्चा भी सिंह-शावक जैसा लगता था अतः ज्योतिषियों ने बहुत सोच विचार कर तुला राशि के नामाक्षर र पर नाम रखने का सुझाव दिया। माता-पिता दोनों ही राम के आराधक थे अतः बालक का नाम रामप्रसाद रखा गया। माँ मूलमती तो सदैव यही कहती थीं कि उन्हें राम जैसा पुत्र चाहिये था। बालक को घर में सभी लोग प्यार से राम कहकर ही पुकारते थे। रामप्रसाद के जन्म से पूर्व उनकी माँ एक पुत्र खो चुकी थीं अतः जादू-टोने का सहारा भी लिया गया। एक खरगोश लाया गया और नवजात शिशु के ऊपर से उतार कर आँगन में छोड़ दिया गया। खरगोश ने आँगन के दो-चार चक्कर लगाये और फौरन मर गया। इसका उल्लेख राम प्रसाद बिस्मिल ने अपनी आत्मकथा में किया है। मुरलीधर के कुल 9 सन्तानें हुईं जिनमें पाँच पुत्रियाँ एवं चार पुत्र थे। आगे चलकर दो पुत्रियों एवं दो पुत्रों का भी देहान्त हो गया।

बाल्यकाल से ही रामप्रसाद की शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया जाने लगा। उसका मन खेलने में अधिक किन्तु पढ़ने में कम लगता था। इसके कारण उनके पिताजी तो उसकी खूब पिटायी लगाते परन्तु माँ हमेशा प्यार से यही समझाती कि "बेटा राम! ये बहुत बुरी बात है मत किया करो।" इस प्यार भरी सीख का उसके मन पर कहीं न कहीं प्रभाव अवश्य पड़ता। उसके पिता ने पहले हिन्दी का अक्षर-बोध कराया किन्तु उ से उल्लू न तो उन्होंने पढ़ना सीखा और न ही लिखकर दिखाया। उन दिनों हिन्दी की वर्णमाला में उ से उल्लू ही पढ़ाया जाता था। इस बात का वह विरोध करते थे और बदले में पिता की मार भी खाते थे। हार कर उसे उर्दू के स्कूल में भर्ती करा दिया गया। शायद यही प्राकृतिक गुण रामप्रसाद को एक क्रान्तिकारी बना पाये। लगभग 14 वर्ष की आयु में रामप्रसाद को अपने पिता की सन्दूकची से रुपये चुराने की लत पड़ गयी। चुराये गये रुपयों से उन्होंने उपन्यास आदि खरीदकर पढ़ना प्रारम्भ कर दिया एवं सिगरेट पीने व भाँग चढ़ाने की आदत भी पड़ गयी थी। कुल मिलाकर रुपये - चोरी का सिलसिला चलता रहा और रामप्रसाद अब उर्दू के प्रेमरस से परिपूर्ण उपन्यासों व गजलों की पुस्तकें पढ़ने का आदी हो गया था। संयोग से एक दिन भाँग के नशे में होने के कारण रामप्रसाद को चोरी करते हुए पकड़ लिया गया। खूब पिटाई हुई, उपन्यास व अन्य किताबें फाड़ डाली गयीं लेकिन रुपये चुराने की आदत नहीं छूटी। आगे चलकर जब उनको थोड़ी समझ आयी तभी वे इस दुर्गुण से मुक्त हो सके। 

रामप्रसाद ने उर्दू मिडिल की परीक्षा में उत्तीर्ण न होने पर अंग्रेजी पढ़ना प्रारम्भ किया। साथ ही पड़ोस के एक पुजारी ने रामप्रसाद को पूजा-पाठ की विधि का ज्ञान करवा दिया। पुजारी एक सुलझे हुए विद्वान व्यक्ति थे। उनके व्यक्तित्व का प्रभाव रामप्रसाद के जीवन पर भी पड़ा। पुजारी के उपदेशों के कारण रामप्रसाद पूजा-पाठ के साथ ब्रह्मचर्य का पालन करने लगा। पुजारी की देखा-देखी रामप्रसाद ने व्यायाम करना भी प्रारम्भ कर दिया। किशोरावस्था की जितनी भी कुभावनाएँ एवं बुरी आदतें मन में थीं वे भी छूट गयीं। केवल सिगरेट पीने की लत नहीं छूटी। परन्तु वह भी कुछ दिनों बाद विद्यालय के एक सहपाठी सुशीलचन्द्र सेन की सत्संगति से छूट गयी। सिगरेट छूटने के बाद रामप्रसाद का मन पढ़ाई में लगने लगा। बहुत शीघ्र ही वह अंग्रेजी के पाँचवें दर्ज़े में आ गए।

रामप्रसाद में अप्रत्याशित परिवर्तन हो चुका था। शरीर सुन्दर व बलिष्ठ हो गया था। नियमित पूजा-पाठ में समय व्यतीत होने लगा था। इसी दौरान वह मन्दिर में आने वाले मुंशी इन्द्रजीत से उसका सम्पर्क हुआ। मुंशी इन्द्रजीत ने रामप्रसाद को आर्य समाज के सम्बन्ध में बताया और स्वामी दयानन्द सरस्वती की लिखी पुस्तक सत्यार्थ प्रकाश पढ़ने को दी। सत्यार्थ प्रकाश के गम्भीर अध्ययन से रामप्रसाद के जीवन पर आश्चर्यजनक प्रभाव पड़ा।

क्रांतिकारी जीवन :--

उनकी पीढ़ी के कई युवाओं की तरह, राम प्रसाद बिस्मिल को भी उन कठिनाइयों और यातनाओं से गुज़रना पड़ा. जिनका सामना आम भारतीयों को अंग्रेज़ों के हाथों करना पड़ा था. इसलिए उन्होंने बहुत कम उम्र में देश के स्वतंत्रता संग्राम में अपना जीवन समर्पित करने का फैसला किया.

आठवीं कक्षा तक अपनी शिक्षा पूरी करने के साथ, राम प्रसाद बिस्मिल हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के सदस्य बन गए, जब वह बहुत छोटे थे. इस क्रांतिकारी संगठन के माध्यम से राम प्रसाद बिस्मिल अन्य स्वतंत्रता सेनानियों जैसे चंद्रशेखर आज़ाद, भगत सिंह, सुखदेव, अशफाफ उल्ला खां, राजगुरु, गोविंद प्रसाद, प्रेमकिशन खन्ना, भगवती चरण, ठाकुर रोशन सिंह और राय राम नारायण के संपर्क में आए.

इसके तुरंत बाद राम प्रसाद बिस्मिल ने हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के लिए काम कर रहे नौ क्रांतिकारियों के साथ हाथ मिलाया और काकोरी ट्रेन डकैती के जरिए सरकारी खजाने को लूटने का काम किया. 9 अगस्त 1925 को काकोरी षड़यंत्र, के रूप में इस घटना के रूप में लोकप्रिय रूप से जाना जाता है, राम प्रसाद बिस्मिल और उनके सहयोगी अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ इस प्लान के मास्टरमाइंड थे.

काकोरी-काण्ड :--

क्रमश:1.योगेशचन्द्र चटर्जी, 2.प्रेमकृष्ण खन्ना, 3.मुकुन्दी लाल, 4.विष्णुशरण दुब्लिश, 5.सुरेशचन्द्र भट्टाचार्य, 6.रामकृष्ण खत्री, 7.मन्मथनाथ गुप्त, 8.राजकुमार सिन्हा, 9.ठाकुर रोशनसिंह, 10.पं॰ रामप्रसाद 'बिस्मिल', 11.राजेन्द्रनाथ लाहिडी, 12.गोविन्दचरण कार, 13.रामदुलारे त्रिवेदी, 14.रामनाथ पाण्डेय, 15.शचीन्द्रनाथ सान्याल, 16.भूपेन्द्रनाथ सान्याल, 17.प्रणवेशकुमार चटर्जी

दि रिवोल्यूशनरी नाम से प्रकाशित इस 4 पृष्ठीय घोषणापत्र को देखते ही ब्रिटिश सरकार इसके लेखक को बंगाल में खोजने लगी। संयोग से शचीन्द्र नाथ सान्याल बाँकुरा में उस समय गिरफ्तार कर लिये गये जब वे यह घोषणापत्र अपने किसी साथी को पोस्ट करने जा रहे थे। इसी प्रकार योगेशचन्द्र चटर्जी कानपुर से पार्टी की मीटिंग करके जैसे ही हावड़ा स्टेशन पर ट्रेन से उतरे कि एच॰ आर॰ ए॰ के संविधान की ढेर सारी प्रतियों के साथ पकड़ लिये गये। उन्हें हजारीबाग जेल में बन्द कर दिया गया। दोनों प्रमुख नेताओं के गिरफ्तार हो जाने से राम प्रसाद बिस्मिल के कन्धों पर उत्तर प्रदेश के साथ-साथ बंगाल के क्रान्तिकारी सदस्यों का उत्तरदायित्व भी आ गया। बिस्मिल का स्वभाव था कि वे या तो किसी काम को हाथ में लेते न थे और यदि एक बार काम हाथ में ले लिया तो उसे पूरा किये बगैर छोड़ते न थे। पार्टी के कार्य हेतु धन की आवश्यकता पहले भी थी किन्तु अब तो और भी अधिक बढ़ गयी थी। कहीं से भी धन प्राप्त होता न देख उन्होंने 7 मार्च 1925 को बिचपुरी तथा 24 मई 1925 को द्वारकापुर में दो राजनीतिक डकैतियाँ डालीं। परन्तु उन्हें उनमें कुछ विशेष धन प्राप्त नहीं हो सका।

इन दोनों डकैतियों में एक-एक व्यक्ति मौके पर ही मारा गया। इससे बिस्मिल की आत्मा को अपार कष्ट हुआ। अन्ततः उन्होंने यह पक्का निश्चय कर लिया कि वे अब केवल सरकारी खजाना ही लूटेंगे, हिन्दुस्तान के किसी भी रईस के घर डकैती बिल्कुल न डालेंगे।

शाहजहाँपुर में उनके घर पर 7 अगस्त 1925 को हुई एक इमर्जेन्सी मीटिंग में निर्णय लेकर योजना बनी और 9 अगस्त 1925 को शाहजहाँपुर रेलवे स्टेशन से बिस्मिल के नेतृत्व में कुल 10 लोग, जिनमें अशफाक उल्ला खाँ, राजेन्द्र लाहिड़ी, चन्द्रशेखर आजाद, शचीन्द्रनाथ बख्शी, मन्मथनाथ गुप्त, मुकुन्दी लाल, केशव चक्रवर्ती (छद्मनाम), मुरारी शर्मा (वास्तविक नाम मुरारी लाल गुप्त) तथा बनवारी लाल शामिल थे, 8 डाउन सहारनपुर-लखनऊ पैसेंजर रेलगाड़ी में सवार हुए। इन सबके पास पिस्तौलों के अतिरिक्त जर्मनी के बने चार माउज़र पिस्तौल भी थे जिनके बट में कुन्दा लगा लेने से वह छोटी स्वचालित राइफल की तरह लगता था और सामने वाले के मन में भय पैदा कर देता था। इन माउजरों की मारक क्षमता भी साधारण पिस्तौलों से अधिक होती थी। उन दिनों ये माउजर आज की ए॰ के॰ - 47 रायफल की तरह चर्चित थे। लखनऊ से पहले काकोरी रेलवे स्टेशन पर रुक कर जैसे ही गाड़ी आगे बढ़ी, क्रान्तिकारियों ने चेन खींचकर उसे रोक लिया और गार्ड के डिब्बे से सरकारी खजाने का बक्सा नीचे गिरा दिया। उसे खोलने की कोशिश की गयी किन्तु जब वह नहीं खुला तो अशफाक उल्ला खाँ ने अपना माउजर मन्मथनाथ गुप्त को पकड़ा दिया और हथौड़ा लेकर बक्सा तोड़ने में जुट गये। मन्मथनाथ गुप्त ने उत्सुकतावश माउजर का ट्रिगर दबा दिया जिससे छूटी गोली अहमद अली नाम के मुसाफिर को लग गयी। वह मौके पर ही ढेर हो गया। शीघ्रतावश चाँदी के सिक्कों व नोटों से भरे चमड़े के थैले चादरों में बाँधकर वहाँ से भागने में एक चादर वहीं छूट गयी। अगले दिन अखबारों के माध्यम से यह खबर पूरे संसार में फैल गयी। ब्रिटिश सरकार ने इस ट्रेन डकैती को गम्भीरता से लिया और डी॰ आई॰ जी॰ के सहायक (सी॰ आई॰ डी॰ इंस्पेक्टर) मिस्टर आर॰ ए॰ हार्टन के नेतृत्व में स्कॉटलैण्ड की सबसे तेज तर्रार पुलिस को इसकी जाँच का काम सौंप दिया।

गोरखपुर जेल में फाँसी :--

16 दिसम्बर 1927 को बिस्मिल ने अपनी आत्मकथा का आखिरी अध्याय (अन्तिम समय की बातें) पूर्ण करके जेल से बाहर भिजवा दिया। 18 दिसम्बर 1927 को माता-पिता से अन्तिम मुलाकात की और सोमवार 19 दिसम्बर 1927 (पौष कृष्ण एकादशी विक्रमी सम्वत् 1984) को प्रात:काल 6 बजकर 30 मिनट पर गोरखपुर की जिला जेल में उन्हें फाँसी दे दी गयी। बिस्मिल के बलिदान का समाचार सुनकर बहुत बड़ी संख्या में जनता जेल के फाटक पर एकत्र हो गयी। जेल का मुख्य द्वार बन्द ही रक्खा गया और फाँसीघर के सामने वाली दीवार को तोड़कर बिस्मिल का शव उनके परिजनों को सौंप दिया गया। शव को डेढ़ लाख लोगों ने जुलूस निकाल कर पूरे शहर में घुमाते हुए राप्ती नदी के किनारे राजघाट पर उसका अन्तिम संस्कार कर दिया।

इस घटना से आहत होकर भगतसिंह ने जनवरी 1928 के किरती (पंजाबी मासिक) में 'विद्रोही' छद्मनाम नाम से लिखा: 

"फाँसी पर ले जाते समय आपने बड़े जोर से कहा - 'वन्दे मातरम! भारतमाता की जय!' और शान्ति से चलते हुए कहा

- 'मालिक तेरी रज़ा रहे और तू ही तू रहे, बाकी न मैं रहूँ न मेरी आरजू रहे;

जब तक कि तन में जान रगों में लहू रहे, तेरा ही जिक्र और तेरी जुस्तजू रहे!'


फाँसी के तख्ते पर खड़े होकर आपने कहा - 'I wish the downfall of British Empire! अर्थात मैं ब्रिटिश साम्राज्य का पतन चाहता हूँ!' उसके पश्चात यह शेर कहा - 'अब न अह्ले-वल्वले हैं और न अरमानों की भीड़, एक मिट जाने की हसरत अब दिले-बिस्मिल में है!' फिर ईश्वर के आगे प्रार्थना की और एक मन्त्र पढ़ना शुरू किया। रस्सी खींची गयी। रामप्रसाद जी फाँसी पर लटक गये।"

अपने लेख के अन्त में भगतसिंह लिखते हैं - "आज वह वीर इस संसार में नहीं है। उसे अंग्रेजी सरकार ने अपना सबसे बड़ा खौफ़नाक दुश्मन समझा। आम ख्याल यही था कि वह गुलाम देश में जन्म लेकर भी सरकार के लिये बड़ा भारी खतरा बन गया था और लड़ाई की विद्या से खूब परिचित था। आपको मैनपुरी षड्यन्त्र के नेता श्री गेंदालाल दीक्षित जैसे शूरवीर ने विशेष तौर पर शिक्षा देकर तैयार किया था। मैनपुरी के मुकदमे के समय आप भागकर नेपाल चले गये थे। अब वही शिक्षा आपकी मृत्यु का कारण बनी। 7  बजे आपकी लाश मिली और बड़ा भारी जुलूस निकला। 'स्वदेश' में प्रकाशित एक समाचार के अनुसार आपकी माता ने कहा था - 'मैं अपने पुत्र की इस मृत्यु पर प्रसन्न हूँ, दुःखी नहीं। मैं श्री रामचन्द्र जैसा ही पुत्र चाहती थी। वैसा ही मेरा 'राम' था। बोलो श्री रामचन्द्र की जय!'

इत्र फुलेल और फूलों की वर्षा के बीच उनकी लाश का जुलूस जा रहा था। दुकानदारों ने उनके शव के ऊपर वेशुमार पैसे फेंके। दोपहर  11 बजे आपकी लाश शमशान-भूमि पहुँची और अन्तिम-क्रिया समाप्त हुई। आपके पत्र का आखिरी हिस्सा आपकी सेवा में प्रस्तुत है - 'मैं खूब सुखी हूँ। 19 तारीख को प्रातः जो होना है उसके लिये तैयार हूँ। परमात्मा मुझे काफी शक्ति देंगे। मेरा विश्वास है कि मैं लोगों की सेवा के लिये फिर जल्द ही इस देश में जन्म लूँगा। सभी से मेरा नमस्कार कहें। दया कर इतना काम और करना कि मेरी ओर से पण्डित जगतनारायण (सरकारी वकील, जिन्होंने इन्हें फाँसी लगवाने के लिये बहुत जोर लगाया था) को अन्तिम नमस्कार कह देना। उन्हें हमारे खून से लथपथ रुपयों के बिस्तर पर चैन की नींद आये। बुढ़ापे में ईश्वर उन्हें सद्बुद्धि दे।"

रामप्रसाद जी की सारी हसरतें दिल-ही-दिल में रह गयीं। आपने एक लम्बा-चौड़ा ऐलान किया है जिसे संक्षेप में हम दूसरी जगह दे रहे हैं। फाँसी से दो दिन पहले सी.आई.डी. के डिप्टी एस.पी. और सेशन जज मि. हैमिल्टन आपसे मिन्नतें करते रहे कि आप मौखिक रूप से सब बातें बता दो। आपको पन्द्रह हजार रुपया नकद दिया जायेगा और सरकारी खर्चे पर विलायत भेजकर बैरिस्टर की पढ़ाई करवाई जायेगी। लेकिन आप कब इन सब बातों की परवाह करते थे। आप तो हुकूमतों को ठुकराने वाले व कभी-कभार जन्म लेने वालों में से थे। मुकदमे के दिनों आपसे जज ने पूछा था - 'आपके पास कौन सी डिग्री है?' तो आपने हँसकर जवाब दिया था - 'सम्राट बनाने वालों को डिग्री की कोई जरूरत नहीं होती, क्लाइव के पास भी तो कोई डिग्री नहीं थी।' आज वह वीर हमारे बीच नहीं है, आह!"

अस्थि-कलश की स्थापना :-- 

बिस्मिल की अन्त्येष्टि के बाद बाबा राघव दास ने गोरखपुर के पास स्थित देवरिया जिले के बरहज नामक स्थान पर ताम्रपात्र में उनकी अस्थियों को संचित कर एक चबूतरा जैसा स्मृति-स्थल बनवा दिया। 

फाँसी के बाद क्रान्तिकारी आन्दोलन में तेज़ी:--

1927 में बिस्मिल के साथ 3 अन्य क्रान्तिकारियों के बलिदान ने पूरे हिन्दुस्तान के हृदय को हिलाकर रख दिया। 9 अगस्त 1925 के काकोरी काण्ड के फैसले से उत्पन्न परिस्थितियाँ ने भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम की दशा और दिशा दोनों ही बदल दी। समूचे देश में स्थान-स्थान पर चिनगारियों के रूप में नई-नई समितियाँ गठित हो गयीं। बेतिया (बिहार) में फणीन्द्रनाथ का हिन्दुस्तानी सेवा दल, पंजाब में सरदार भगत सिंह की नौजवान सभा तथा लाहौर (अब पाकिस्तान) में सुखदेव की गुप्त समिति के नाम से कई क्रान्तिकारी संस्थाएँ जन्म ले चुकी थीं। हिन्दुस्तान के कोने-कोने में क्रान्ति की आग दावानल की तरह फैल चुकी थी। कानपुर से गणेशशंकर विद्यार्थी का प्रताप व गोरखपुर से दशरथ प्रसाद द्विवेदी का स्वदेश जैसे अखबार इस आग को हवा दे रहे थे।

काकोरी काण्ड के एक प्रमुख क्रान्तिकारी चन्द्रशेखर आजाद, जिन्हें राम प्रसाद बिस्मिल उनके पारे (mercury) जैसे चंचल स्वभाव के कारण क्विक सिल्वर कहा करते थे, पूरे हिन्दुस्तान में भेस बदल कर घूमते रहे। उन्होंने भिन्न-भिन्न समितियों के प्रमुख संगठनकर्ताओं से सम्पर्क करके सारी क्रान्तिकारी गतिविधियों को एक सूत्र में पिरोने का कार्य किया। 8 व 9 सितम्बर 1928 में फिरोजशाह कोटला दिल्ली में एच॰ आर॰ ए॰, नौजवान सभा, हिन्दुस्तानी सेवा दल व गुप्त समिति का विलय करके एच॰ एस॰ आर॰ ए॰ नाम से एक नयी क्रान्तिकारी पार्टी का गठन हुआ। इस पार्टी को बिस्मिल के बताये रास्ते पर चलकर ही देश को आजाद कराना था किन्तु ब्रिटिश साम्राज्य के दमन चक्र ने वैसा भी नहीं होने दिया।

नोएडा-ग्रेटर नोएडा एक्सप्रेस वे के समीप स्थित नलगढ़ा गाँव में रखा ऐतिहासिक पत्थर जिसका प्रयोग भगतसिंह ने बम बनाने के लिये किया

30 अक्टूबर 1928 को साइमन कमीशन का विरोध करते हुए लाला लाजपत राय डिप्टी सुपरिण्टेण्डेण्ट जे॰ पी॰ साण्डर्स के बर्बर लाठीचार्ज से बुरी तरह घायल हुए और 17 नवम्बर 1928 को उनकी मृत्यु हो गयी। इस घटना से आहत एच॰ एस॰ आर॰ ए॰ के चार युवकों ने 17 दिसम्बर 1928 को लाहौर जाकर दिन दहाड़े साण्डर्स का वध कर दिया और फरार हो गये। साण्डर्स हत्याकाण्ड के प्रमुख अभियुक्त सरदार भगत सिंह को पुलिस पंजाब में तलाश रही थी जबकि वह यूरोपियन के भेस में कलकत्ता जाकर बंगाल के क्रान्तिकारियों से बम बनाने की तकनीक और सामग्री जुटाने में लगे हुए थे। दिल्ली से 20 मील दूर ग्रेटर नोएडा एक्सप्रेस वे के निकट स्थित नलगढ़ा गाँव में रहकर भगत सिंह ने दो बम तैयार किये और बटुकेश्वर दत्त के साथ जाकर 8 अप्रैल 1929 को दिल्ली की सेण्ट्रल असेम्बली में उस समय विस्फोट कर दिया जब सरकार जन विरोधी कानून पारित करने जा रही थी। इस विस्फोट ने बहरी सरकार पर भले ही असर न किया हो परन्तु समूचे देश में अद्भुत जन-जागरण का काम अवश्य किया।

बम विस्फोट के बाद दोनों ने "इंकलाब! जिन्दाबाद!!" व "साम्राज्यवाद! मुर्दाबाद!!" के जोरदार नारे लगाये और एच॰ एस॰ आर॰ ए॰ के पैम्फलेट हवा में उछाल दिये। असेम्बली में मौजूद सुरक्षाकर्मियों - सार्जेण्ट टेरी व इन्स्पेक्टर जॉनसन ने उन्हें वहीं गिरफ्तार करके जेल भेज दिया। यह सनसनीखेज खबर अगले ही दिन समूचे देश में फैल गयी। 4 मई 1929 के अभ्युदय में इलाहाबाद से यह समाचार छपा - ऐसेम्बली का बम केस: काकोरी केस से इसका सम्बन्ध है। आई॰ पी॰ सी॰ की दफा 307 व एक्सप्लोसिव एक्ट की धारा 3 के अन्तर्गत इन दोनों को उम्र-कैद का दण्ड देकर अलग-अलग जेलों में रक्खा गया। जेल में राजनीतिक बन्दियों जैसी सुविधाओं की माँग करते हुए जब दोनों ने भूख हड़ताल शुरू की तो उन दोनों का सम्बन्ध साण्डर्स-वध से जोड़ते हुए एक और केस कायम किया गया जिसे लाहौर कांस्पिरेसी केस के नाम से जाना जाता है। इस केस में कुल 24 लोग नामजद हुए, इनमें से 5 फरार हो गये, 1 को पहले ही सजा हो चुकी थी, शेष 18 पर केस चला। इनमें से एक - यतीन्द्रनाथ दास की बोर्स्टल जेल लाहौर में लगातार भूख हड़ताल करने से मृत्यु हो गयी, शेष बचे 17 में से 3 को फाँसी, 7 को उम्र-कैद, एक को 7 वर्ष व एक को 5 वर्ष की सजा का हुक्म हुआ। तीन को ट्रिब्यूनल ने रिहा कर दिया। बाकी बचे तीन अभियुक्तों को अदालत ने साक्ष्य न मिलने के कारण छोड़ दिया।

फाँसी की सजा पाये तीनों अभियुक्तों - भगत सिंह, राजगुरु व सुखदेव ने अपील करने से साफ मना कर दिया। अन्य सजायाफ्ता अभियुक्तों में से सिर्फ़ ३ ने ही प्रिवी कौन्सिल में अपील की। 11 फ़रवरी 1931 को लन्दन की प्रिवी कौन्सिल में अपील की सुनवाई हुई। अभियुक्तों की ओर से एडवोकेट प्रिन्ट ने बहस की अनुमति माँगी थी किन्तु उन्हें अनुमति नहीं मिली और बहस सुने बिना ही अपील खारिज कर दी गयी। चन्द्रशेखर आजाद ने इनकी सजा कम कराने का काफी प्रयास किया। वे हरदोई जेल में जाकर गणेशशंकर विद्यार्थी से मिले। विद्यार्थी से परामर्श कर वे इलाहाबाद गये और जवाहरलाल नेहरू से उनके निवास-स्थान आनन्द भवन में भेंट की और उनसे यह आग्रह किया कि वे गान्धी जी पर लॉर्ड इरविन से इन तीनों की फाँसी को उम्र - कैद में बदलवाने के लिये जोर डालें। नेहरू जी ने जब आजाद की बात नहीं मानी तो आजाद ने उनसे काफी देर तक बहस की। इस पर नेहरू ने क्रोधित होकर आजाद को तत्काल वहाँ से चले जाने को कहा। आज़ाद अपने तकियाकलाम "स्साला" के साथ भुनभुनाते हुए नेहरू के ड्राइँग रूम से बाहर निकले और अपनी साइकिल पर बैठकर अल्फ्रेड पार्क की ओर चले गये। अल्फ्रेड पार्क में अपने एक मित्र सुखदेवराज से मन्त्रणा कर ही रहे थे तभी सी॰ आई॰ डी॰ का एस॰ एस॰ पी॰ नॉट बाबर जीप से वहाँ आ पहुँचा। उसके पीछे-पीछे भारी संख्या में कर्नलगंज थाने से पुलिस भी आ गयी। दोनों ओर से हुई भयंकर गोलीबारी में आजाद को वीरगति प्राप्त हुई। यह 17 फ़रवरी 1931 की घटना है। 23 मार्च 1931 को निर्धारित समय से 13 घण्टे पूर्व भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को लाहौर की सेण्ट्रल जेल में शाम को 7 बजे फाँसी दे दी गयी। यह जेल मैनुअल के नियमों का खुला उल्लंघन था, पर कौन सुनने वाला था? इन तीनों की फाँसी का समाचार मिलते ही पूरे देश में मारकाट मच गयी। कानपुर में हिन्दू-मुस्लिम दंगा भड़क उठा जिसे शान्त करवाने की कोशिश में क्रान्तिकारियों के शुभचिन्तक गणेशशंकर विद्यार्थी भी शहीद हो गये। इस प्रकार दिसम्बर 1927 से मार्च 1931 तक एक-एक कर देश के 11 नरसिंह आजादी की भेंट चढ़ गये।

उत्तर भारत की क्रान्तिकारी गतिविधियों के अलावा बंगाल की घटनाओं का लेखा-जोखा भी इतिहास में दर्ज़ है। हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन में बंगाल के भी कई क्रान्तिकारी शामिल थे जिनमें से एक राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी को निर्धारित तिथि से 2 दिन पूर्व 17 दिसम्बर 1927 को फाँसी दिये जाने का कारण केवल यह था कि बंगाल के क्रान्तिकारियों ने फाँसी की निश्चित तिथि से एक दिन पूर्व अर्थात् 18 दिसम्बर 1927 को ही उन्हें गोण्डा जेल से छुड़ा लेने की योजना बना ली थी। इसकी सूचना सी॰ आई॰ डी॰ ने ब्रिटिश सरकार को दे दी थी। 13 जनवरी 1928 को मणीन्द्रनाथ बनर्जी ने चन्द्रशेखर आजाद के उकसाने पर अपने सगे चाचा को, जिन्हें काकोरी काण्ड में अहम भूमिका निभाने के पुरस्कारस्वरूप डी॰ एस॰ पी॰ के पद पर प्रोन्नत किया गया था, उन्हीं की सर्विस रिवॉल्वर से मौत के घाट उतार दिया। दिसम्बर 1929 में मछुआ बाजार गली स्थित निरंजन सेनगुप्ता के घर छापा पड़ा, जिसमें 27 क्रान्तिकारियों को गिरफ्तार कर केस कायम हुआ और  5  को कालेपानी की सजा दी गयी। 18 अप्रैल 1930 को मास्टर सूर्य सेन के नेतृत्व में चटगाँव शस्त्रागार लूटने का प्रयास हुआ जिसमें सूर्य सेन व तारकेश्वर दस्तीगार को फाँसी एवं 12 अन्य को उम्र-कैद की सजा हुई। 8 अगस्त 1930 को के॰ के॰ शुक्ला ने झाँसी के कमिश्नर स्मिथ पर गोली चला दी, उसे मृत्यु-दण्ड मिला। 27 अक्टूबर 1930 को युगान्तर पार्टी के सदस्यों ने सुरेशचन्द्र दास के नेतृत्व में कलकत्ता में तल्ला तहसील की ट्रेजरी लूटने का प्रयास किया, सभी पकड़े गये और कालेपानी की सजा हुई। अप्रैल 1931 में मेमनसिंह डकैती डाली गई जिसमें गोपाल आचार्य, सतीशचन्द्र होमी व हेमेन्द्र चक्रवर्ती को उम्र-कैद की सजा मिली।

"मरो नहीं, मारो!" का नारा 1942 में लालबहादुर शास्त्री ने दिया जिसने क्रान्ति की दावानल को प्रचण्ड किया।

इन सब घटनाओं का कांग्रेस पार्टी पर भी व्यापक असर पड़ा। सुभाषचन्द्र बोस जैसे नवयुवक गान्धी जी की नीतियों का मुखर विरोध करने लगे थे। जो गान्धी सन् 1922 से 1927 तक राजनीति के पटल से एकदम अदृश्य हो चुके थे अब वही गान्धी जी राम प्रसाद बिस्मिल व उनके साथियों के बलिदान के बाद फिर से तेवर बदलते हुए कांग्रेस में अपनी मनमर्जी का अध्यक्ष चुनवाने और मनचाही नीतियाँ लागू करवाने लगे थे। उनसे तंग आकर सुभाषचन्द्र बोस ने लगातार दो बार - सन् 1938 के त्रिपुरी व सन् 1939 के हरिपुरा चुनाव में कांग्रेस अध्यक्ष का पद जीत कर गान्धी जी को आइना दिखाने का दुस्साहस किया था। किन्तु गान्धी जी ने कांग्रेस वर्किंग कमेटी में लॉबीइंग करके सुभाष को तंग करना शुरू कर दिया जिससे दुखी होकर उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी और फॉरवर्ड ब्लॉक के नाम से अपनी अलग पार्टी बना ली। उसके बाद जब उन्हें लगा कि गान्धी जी सरकार से मिलकर उनके काम में रोड़ा अटकाते ही रहेंगे तो उन्होंने एक दिन हिन्दुस्तान छोड़ दिया और जापान पहुँचकर आई॰ एन॰ ए॰ अर्थात् आजाद हिन्द फौज की कमान सम्हाल ली।

दूसरे विश्व युद्ध में इंग्लैण्ड को बुरी तरह उलझता देख जैसे ही नेताजी ने आजाद हिन्द फौज को "दिल्ली चलो" का नारा दिया, गान्धी जी ने मौके की नजाकत को भाँपते हुए 8 अगस्त 1942 की रात में ही बम्बई से अँग्रेजों को "भारत छोड़ो" व भारतीयों को "करो या मरो" का आदेश जारी किया और सरकारी सुरक्षा में यरवदा (पुणे) स्थित आगा खान पैलेस में चले गये। 9 अगस्त 1942 के दिन इस आन्दोलन को लालबहादुर शास्त्री सरीखे एक छोटे से व्यक्ति ने प्रचण्ड रूप दे दिया। १९ अगस्त,1942 को शास्त्री जी गिरफ्तार हो गये। 9 अगस्त 1924 को ब्रिटिश सरकार का तख्ता पलटने के उद्देश्य से 'बिस्मिल' के नेतृत्व में हिन्दुस्तान प्रजातन्त्र संघ के दस जुझारू कार्यकर्ताओं ने काकोरी काण्ड किया था जिसकी यादगार ताजा रखने के लिये पूरे देश में प्रतिवर्ष 9 अगस्त को "काकोरी काण्ड स्मृति - दिवस" मनाने की परम्परा भगत सिंह ने प्रारम्भ कर दी थी और इस दिन बहुत बड़ी संख्या में नौजवान एकत्र होते थे। गान्धी जी ने एक सोची-समझी रणनीति के तहत 9 अगस्त 1942 का दिन चुना था।

9 अगस्त 1942 को दिन निकलने से पहले ही काँग्रेस वर्किंग कमेटी के सभी सदस्य गिरफ्तार हो चुके थे और काँग्रेस को गैरकानूनी संस्था घोषित कर दिया गया। गान्धी जी के साथ भारत कोकिला सरोजिनी नायडू को यरवदा (पुणे) के आगा खान पैलेस में सारी सुविधाओं के साथ, डॉ॰ राजेन्द्र प्रसाद को पटना जेल में व अन्य सभी सदस्यों को अहमदनगर के किले में नजरबन्द रखने का नाटक ब्रिटिश साम्राज्य ने किया था ताकि जनान्दोलन को दबाने में बल-प्रयोग से इनमें से किसी को कोई हानि न हो। सरकारी आँकड़ों के अनुसार इस जनान्दोलन में 940 लोग मारे गये 1630 घायल हुए,18000 डी० आई० आर० में नजरबन्द हुए तथा 60229 गिरफ्तार हुए। आन्दोलन को कुचलने के ये आँकड़े दिल्ली की सेण्ट्रल असेम्बली में ऑनरेबुल होम मेम्बर ने पेश किये थे।

सन् 1943 से 1945 तक नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने आजाद हिन्द फौज का नेतृत्व किया। उनके सैनिक "सरफरोशी की तमन्ना, अब हमारे दिल में है; देखना है जोर कितना बाजु-ए-कातिल में है?" जैसा सम्बोधि - गीत और "कदम-कदम बढाये जा, खुशी के गीत गाये जा; ये जिन्दगी है कौम की, तू कौम पे लुटाये जा!" सरीखे कौमी-तराने फौजी बैण्ड की धुन के साथ गाते हुए सिंगापुर के रास्ते कोहिमा(नागालैण्ड) तक आ पहुँचे। तभी जापान पर अमरीकी परमाणु हमले के कारण नेताजी को अपनी रणनीति बदलनी पड़ी। वे विमान से रूस जाने की तैयारी में जैसे ही फारमोसा के ताईहोकू एयरबेस से उड़े कि 18 अगस्त 1945 को उनके 97-2 मॉडल हैवी बॉम्बर प्लेन में आग लग गयी। उन्हें घायल अवस्था में ताईहोकू आर्मी हॉस्पिटल ले जाया गया जहाँ रात 9 बजे उनकी मृत्यु हो गयी।

नेताजी की मौत और आजाद हिन्द फौज के अधिकारियों पर मुकदमे की खबर ने पूरे हिन्दुस्तान में तूफान मचा दिया। इसके फलस्वरूप दूसरे विश्वयुद्ध के बाद बम्बई बन्दरगाह पर उतरे नौसैनिकों ने बगावत कर दी। 18 फ़रवरी 1946 को बम्बई से शुरू हुआ यह नौसैनिक विद्रोह देश के सभी बन्दरगाहों व महानगरों में फैल गया। 21 फ़रवरी 1946 को ब्रिटिश आर्मी ने बम्बई पहुँच कर हमारे नौसैनिकों पर गोलियाँ चलायीं जिसके परिणामस्वरूप केवल 22 फ़रवरी 1946 को ही 228 लोग मारे गये तथा 1046 घायल हुए। यह उस समय का सबसे भयंकर दमन था जो क्रूर ब्रिटिश सरकार ने हिन्दुस्तान में किय। 

बिस्मिल का क्रान्ति-दर्शन :--

भारतवर्ष को ब्रिटिश साम्राज्य से मुक्त कराने में यूँ तो असंख्य वीरों ने अपना अमूल्य बलिदान दिया परन्तु राम प्रसाद बिस्मिल एक ऐसे अद्भुत क्रान्तिकारी थे जिन्होंने अत्यन्त निर्धन परिवार में जन्म लेकर साधारण शिक्षा के बावजूद असाधारण प्रतिभा और अखण्ड पुरुषार्थ के बल पर हिन्दुस्तान प्रजातन्त्र संघ के नाम से देशव्यापी संगठन खड़ा किया जिसमें एक - से - बढ़कर एक तेजस्वी व मनस्वी नवयुवक शामिल थे जो उनके एक इशारे पर इस देश की व्यवस्था में आमूल परिवर्तन कर सकते थे किन्तु अहिंसा की दुहाई देकर उन्हें एक-एक करके मिटाने का क्रूरतम षड्यन्त्र जिन्होंने किया उन्हीं का चित्र भारतीय पत्र मुद्रा (Paper Currency) पर दिया जाता है। जबकि अमरीका में एक व दो अमरीकी डॉलर पर आज भी जॉर्ज वाशिंगटन का ही चित्र छपता है जिसने अमरीका को अँग्रेजों से मुक्त कराने में प्रत्यक्ष रूप से आमने-सामने युद्ध लड़ा था।

बिस्मिल की पहली पुस्तक सन् 1916 में छपी थी जिसका नाम था-अमेरिका की स्वतन्त्रता का इतिहास। बिस्मिल के जन्म शताब्दी वर्ष: 1996-1997 में यह पुस्तक स्वतन्त्र भारत में फिर से प्रकाशित हुई जिसका विमोचन भारत के पूर्व प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी ने किया।" उस कार्यक्रम में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक प्रो॰ राजेन्द्र सिंह (रज्जू भैया) भी उपस्थित थे। इस सम्पूर्ण ग्रन्थावली में बिस्मिल की लगभग दो सौ प्रतिबन्धित कविताओं के अतिरिक्त पाँच पुस्तकें भी शामिल की गयी थीं। परन्तु आज तक किसी भी सरकार ने बिस्मिल के क्रान्ति-दर्शन को समझने व उस पर शोध करवाने का प्रयास ही नहीं किया। जबकि गान्धी जी द्वारा 1909 में विलायत से हिन्दुस्तान लौटते समय पानी के जहाज पर लिखी गयी पुस्तक हिन्द स्वराज पर अनेकोँ संगोष्ठियाँ हुईं। बिस्मिल सरीखे असंख्य शहीदों के सपनों का भारत बनाने की आवश्यकता है।

राम प्रसाद ''बिस्मिल'' के ये अनमोल, क्रांतिकारी  विचार :--

1.  मैं ब्रिटिश साम्राज्य का सम्पूर्ण नाश चाहता हूँ. 

2. यदि किसी के मन में जोश, उमंग या उत्तेजना पैदा हो 

तो शीघ्र गावों में जाकर कृषक की दशा को सुधारें.

3. मुझे विश्वास है कि मेरी आत्मा 

मातृभूमि तथा उसकी दीन संतति के लिए 

नए उत्साह और ओज के साथ काम करने के लिए 

शीघ्र ही फिर लौट आयेगी..

4. किसी को घृणा तथा उपेक्षा की दृष्टि से न देखा जाये, 

किन्तु सबके साथ करुणा सहित प्रेमभाव का बर्ताव किया जाए..

संसार में जितने भी बड़े आदमी हुए हैं, 

उनमें से अधिकतर ब्रह्मचर्यं के प्रताप से ही बने हैं 

और सैकड़ों-हजारों वर्षों बाद भी उनका यशोगान करके मनुष्य 

पने आपको कृतार्थ करते हैं. 

5. ब्रह्मचर्यं की महिमा यदि जाननी हो तो 

परशुराम, राम, लक्ष्मण, कृष्ण, भीष्म, बंदा वैरागी, राम कृष्ण, महर्षि दयानंद, विवेकानंद तथा राममूर्ति की जीवनियों का अवश्य अध्ययन करें.

मैं जानता हूँ कि मैं मरूँगा, 

6. किन्तु मैं मरने से नहीं घबराता. किन्तु जनाब, 

क्या इससे सरकार का उद्देश्य पूर्ण होगा? 

क्या इसी तरह हमेशा भारत माँ के वक्षस्थल पर विदेशियों का तांडव नृत्य होता रहेगा? 

7. कदापि नहीं. इतिहास इसका प्रमाण है. 

मैं मरूँगा किन्तु फिर दुबारा जन्म लूँगा 

और मातृभूमि का उद्धार करूँगा...

पंथ, सम्प्रदाय, मजहब अनेक हो सकते हैं, 

किन्तु धर्म तो एक ही होता है. 

8. यदि पंथ- सम्प्रदाय उस एक ईश्वर की उपासना के लिए 

प्रेरणा देते हैं तो ठीक 

अन्यथा शक्ति का बाना पहनकर सांप्रदायिकता को बढ़ावा देना 

न धर्म है और न ही ईश्वर भक्ति....

9. मेरा यह दृढ निश्चय है कि 

मैं उत्तम शरीर धारण कर नवीन शक्तियों सहित 

अति शीघ्र ही 

पुनः भारत में ही किसी निकटवर्ती संबंधी या इष्ट मित्र के

गृह में जन्म ग्रहण करूँगा 

क्योंकि मेरा जन्म-जन्मान्तरों में भी यही उद्देश्य रहेगा कि 

मनुष्य मात्र को सभी प्राकृतिक साधनों पर 

समानाधिकार प्राप्त हो. कोई किसी पर हुकूमत न करे.....


10. मुझे विश्वास है कि मेरी आत्मा 

मातृभूमि तथा उसकी दीन संतति के लिए 

नए उत्साह और ओज के साथ काम करने के लिए फिर लौट आयेगी......


11. यदि देशहित मरना पड़े 

मुझे सहस्रों बार भी,  

तो भी न मैं इस कष्ट को निज ध्यान में लाऊं 

कभी. हे ईश भारतवर्ष में शत बार मेरा जन्म हो, 

कारण सदा ही मृत्यु का देशोपकारक कर्म हो.......


 शहीद राम प्रसाद बिस्मिल द्वारा लिखी गयी सबसे प्रसिद्ध देश के प्रति रचना

जिसे गा कर तमाम देश भक्त अपनी आज़ादी के लिए हंसते हुए अपने प्राणों की आहुति दे दी. :--


सरफ़रोशी की तमन्ना, अब हमारे दिल में है.

देखना है ज़ोर कितना, बाज़ु-ए-कातिल में है?

करता नहीं क्यूँ दूसरा कुछ बातचीत,

देखता हूँ मैं जिसे वो चुप तेरी महफ़िल में है

ऐ शहीदे-ए-मुल्क-ओ-मिल्लत, मैं तेरे ऊपर निसार,

अब तेरी हिम्मत का चर्चा ग़ैर की महफ़िल में है

सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है

वक़्त आने पर बता देंगे तुझे, ए आसमान,

हम अभी से क्या बताएँ क्या हमारे दिल में है

खेँच कर लाई है सब को क़त्ल होने की उमीद,

आशिक़ोँ का आज जमघट कूच-ए-क़ातिल में है

सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है.

है लिये हथियार दुश्मन, ताक में बैठा उधर

और हम तैय्यार हैं; सीना लिये अपना इधर.

खून से खेलेंगे होली, गर वतन मुश्किल में है

सरफ़रोशी की तमन्ना, अब हमारे दिल में है.

हाथ, जिन में हो जुनूँ, कटते नहीं तलवार से,

सर जो उठ जाते हैं वो, झुकते नहीं ललकार से.

और भड़केगा जो शोला, सा हमारे दिल में है,

सरफ़रोशी की तमन्ना, अब हमारे दिल में है.

हम तो निकले ही थे घर से, बाँधकर सर पे कफ़न

जाँ हथेली पर लिये लो, बढ चले हैं ये कदम.

जिन्दगी तो अपनी महमाँ, मौत की महफ़िल में है

सरफ़रोशी की तमन्ना, अब हमारे दिल में है.

यूँ खड़ा मक़्तल में क़ातिल, कह रहा है बार-बार,

क्या तमन्ना-ए-शहादत, भी किसी के दिल में है?

दिल में तूफ़ानों की टोली और नसों में इन्कलाब,

होश दुश्मन के उड़ा, देंगे हमें रोको न आज.

दूर रह पाये जो हमसे, दम कहाँ मंज़िल में है

जिस्म वो क्या जिस्म है, जिसमें न हो खूने-जुनूँ,

क्या लड़े तूफाँ से, जो कश्ती-ए-साहिल में है.

सरफ़रोशी की तमन्ना, अब हमारे दिल में है,

देखना है ज़ोर कितना, बाज़ु-ए-कातिल में है.


मातृभूमि पर अमर शहीद राम प्रसाद बिस्मिल की एक और रचना :--


ऐ मातृभूमि तेरी जय हो, सदा विजय हो.

प्रत्येक भक्त तेरा, सुख-शांति-कान्तिमय हो.

अज्ञान की निशा में, दुख से भरी दिशा में, 

संसार के हृदय में तेरी प्रभा उदय हो.

तेरा प्रकोप सारे जग का महाप्रलय हो,

तेरी प्रसन्नता ही आनन्द का विषय हो.

वह भक्ति दे कि 'बिस्मिल' सुख में तुझे न भूले,

वह शक्ति दे कि दुःख में कायर न यह हृदय हो.

दुनिया से गुलामी का मैं नाम मिटा दूंगा

दुनिया से गुलामी का मैं नाम मिटा दूंगा,

एक बार ज़माने को आज़ाद बना दूंगा.

बेचारे ग़रीबों से नफ़रत है जिन्हें, एक दिन,

मैं उनकी अमरी को मिट्टी में मिला दूंगा.

यह फ़ज़ले-इलाही से आया है ज़माना वह,

दुनिया की दग़ाबाज़ी दुनिया से उठा दूंगा.

ऐ प्यारे ग़रीबो! घबराओ नहीं दिल मंे,

हक़ तुमको तुम्हारे, मैं दो दिन में दिला दूंगा.

बंदे हैं ख़ुदा के सब, हम सब ही बराबर हैं,

ज़र और मुफ़लिसी का झगड़ा ही मिटा दूंगा.

जो लोग ग़रीबों पर करते हैं सितम नाहक़,

गर दम है मेरा क़ायम, गिन-गिन के सज़ा दूंगा.

हिम्मत को ज़रा बांधो, डरते हो ग़रीबों क्यों?

शैतानी क़िले में अब मैं आग लगा दूंगा.

ऐ ‘सरयू’ यक़ीं रखना, है मेरा सुख़न सच्चा,

कहता हूं, जुबां से जो, अब करके दिखा दूंगा.

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