Shlok Gyan

Total Shlokas:- 657

Shlok-gyan--128

किञ्चिदाश्रयसंयोगात् धत्ते शोभामसाध्वापि ।

कान्ताविलोचने न्यस्ते मलीमसमिवाञ्जनम् ॥

भावार्थ :-

बूरी चीज़ भी आश्रय के योग से कुछ शोभा प्राप्त करती है; देखो ! स्त्री की आँख में अंजा हुआ काजल भी अंजन बनता है ।

Shlok-gyan--129

पुरारौ च मुरारौ च न भेदः पारमार्थिकः ।

तथाऽपि मामकी भक्तिः चन्द्रचूडे प्रधावति ॥

भावार्थ :-

जिसका जिस रुप के प्रति आकर्षण होगा, वह उसे ले सकता है । पुरारी या मुरारी में कोई पारमार्थिक भेद नहीं है, कारण सभी रुप एक हि भगवान के हैं ।

Shlok-gyan--130

आस्तिको निःस्पृहो योगी प्रभुकार्ये सदा रतः ।

दक्षो शान्तश्च तेजस्वी प्रभुप्रचारको भवेत् ॥

भावार्थ :-

आस्तिक, निःस्पृही, प्रभु से जुडा हुआ, प्रभुकार्य में रत, दक्ष, शांत और तेजस्वी – ऐसा प्रभुप्रचारक होता है ।

Shlok-gyan--131

उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् ।

आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम् ॥

भावार्थ :-

सब प्रकार के भक्त श्रेष्ठ हि हैं, फिर भी, उन सब में से ज्ञानी तो साक्षात् मेरा हि स्वरुप है, ऐसा मेरा मत है; क्यों कि वह अति उत्तम गतिरुप मुज में हि सम्यक् रुप से स्थित रह्ता है ।

Shlok-gyan--132

चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन ।

आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ॥

भावार्थ :-

हे भरतश्रेष्ठ अर्जुन ! अर्थार्थी (भोगार्थी), आर्त (दुःख से भजनेवाले), जिज्ञासु और ज्ञानी – ऐसे चार प्रकार के भक्त मुज़े भजते हैं ।

Shlok-gyan--133

तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते ।

प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः ॥

भावार्थ :-

मुजे भजनेवाले भक्तों में से, मुज में एकात्मभाव से भजनेवाला नित्ययुक्त ज्ञानी भक्त सब से विशेष है; क्यों कि मुज़े तत्त्व से जाननेवाले ज्ञानी भक्त को मैं अत्यंत प्रिय हूँ, और वह ज्ञानी मुज़े अत्यंत प्रिय है ।

Shlok-gyan--134

केचिद्वदन्ति धनहीनजनो जघन्यः

केचिद्वदन्ति गुणहीनजनो जघन्यः ।

व्यासो बदत्यखिलवेदपुराणविज्ञो

नारायणस्मरणहीनजनो जघन्यः ॥

भावार्थ :-

कुछ लोग कहते हैं कि धनहीन लोग क्षुद्र हैं; कुछ कहते हैं कि गुणहीन लोग क्षुद्र हैं; पर, सभी वेद-पुराण जाननेवाले श्रीव्यास मुनि कहते हैं कि नारायण का (भगवान का) स्मरण न करनेवाले क्षुद्र हैं ।

Shlok-gyan--136

श्रवणं कीर्तनं ध्यानं हरेरकर्मणः ।

जन्मकर्म गुणानां च तदर्थेऽखिलचेष्टितम् ॥

भावार्थ :-

भगवान की लीलाएँ अद्भुत हैं । उनके जन्म, कर्म, और गुण दिव्य हैं । उन्हीं का श्रवण, कीर्तन, और ध्यान करना चाहिए । सब भगवान के लिए करना सीखना चाहिए ।

Shlok-gyan--137

कृतान्तस्य दूती जरा कर्णमूले

समागत्य वक्तीति लोकाः शृणुध्वम् ।

परस्त्रीपरद्रव्यवाञ्छां त्यजध्वम्

भजध्वं रमानाथपादारविन्दम् ॥

भावार्थ :-

यम की दूती जरा (बुढापा) कान के करीब आकर बताती है कि “हे लोगों ! सुनो । परायी स्त्री और पराया धन लेने का खयाल छोड दो, और रमानाथ (भगवान) के चरणों में ध्यान धरो ।

Shlok-gyan--138

श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् ।

अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥

भावार्थ :-

श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन, वन्दन, दास्य, सख्य, और आत्मनिवेदन – ये नौ भक्ति के सोपान हैं ।