Shlok Gyan

Total Shlokas:- 657

Shlok-gyan--139

यदाचरित कल्याणि ! शुभं वा यदि वाऽशुभम् ।

तदेव लभते भद्रे! कर्त्ता कर्मजमात्मनः ॥

भावार्थ :-

मनुष्य जैसा भी अच्छा या बुरा कर्म करता है, उसे वैसा ही फल मिलता है । कर्त्ता को अपने कर्म का फल अवश्य भोगना पड़ता है ।

Shlok-gyan--140

सुदुखं शयितः पूर्वं प्राप्येदं सुखमुत्तमम् ।

प्राप्तकालं न जानीते विश्वामित्रो यथा मुनिः ॥

भावार्थ :-

किसी को जब बहुत दिनों तक अत्यधिक दुःख भोगने के बाद महान सुख मिलता है तो उसे विश्वामित्र मुनि की भांति समय का ज्ञान नहीं रहता – सुख का अधिक समय भी थोड़ा ही जान पड़ता है ।

Shlok-gyan--135

आदरेण यथा स्तौति धनवन्तं धनेच्छया ।

तथा चेद्विश्चकर्तारं को न मुच्येत बन्धनात् ॥

भावार्थ :-

धनलालसा से जिस तरह धनवान की स्तुति (इन्सान) करता है, वैसे यदि विश्वकर्ता (भगवान) की करे, तो कौन बंधन मुक्त न हो ?

Shlok-gyan--141

निरुत्साहस्य दीनस्य शोकपर्याकुलात्मनः ।

सर्वार्था व्यवसीदन्ति व्यसनं चाधिगच्छति ॥

भावार्थ :-

उत्साह हीन, दीन और शोकाकुल मनुष्य के सभी काम बिगड़ जाते हैं , वह घोर विपत्ति में फंस जाता है ।

Shlok-gyan--142

गुणगान् व परजनः स्वजनो निर्गुणोऽपि वा ।

निर्गणः स्वजनः श्रेयान् यः परः पर एव सः ॥

भावार्थ :-

पराया मनुष्य भले ही गुणवान् हो तथा स्वजन सर्वथा गुणहीन ही क्यों न हो, लेकिन गुणी परजन से गुणहीन स्वजन ही भला होता है । अपना तो अपना है और पराया पराया ही रहता है।

Shlok-gyan--143

धर्मादर्थः प्रभवति धर्मात्प्रभवते सुखम् ।

धर्मण लभते सर्वं धर्मप्रसारमिदं जगत् ॥

भावार्थ :-

धर्म से ही धन, सुख तथा सब कुछ प्राप्त होता है । इस संसार में धर्म ही सार वस्तु है ।

Shlok-gyan--144

सत्यमेवेश्वरो लोके सत्ये धर्मः सदाश्रितः ।

सत्यमूलनि सर्वाणि सत्यान्नास्ति परं पदम् ॥

भावार्थ :-

सत्य ही संसार में ईश्वर है; धर्म भी सत्य के ही आश्रित है; सत्य ही समस्त भव – विभव का मूल है; सत्य से बढ़कर और कुछ नहीं है ।

Shlok-gyan--166

उत्साहो बलवानार्य नास्त्युत्साहात्परं बलम् ।

सोत्साहस्य हि लोकेषु न किञ्चदपि दुर्लभम् ॥

भावार्थ :-

उत्साह बड़ा बलवान होता है; उत्साह से बढ़कर कोई बल नहीं है । उत्साही पुरुष के लिए संसार में कुछ भी दुर्लभ नहीं है ।

Shlok-gyan--167

वाच्यावाच्यं प्रकुपितो न विजानाति कर्हिचित् ।

नाकार्यमस्ति क्रुद्धस्य नवाच्यं विद्यते क्वचित् ॥

भावार्थ :-

क्रोध की दशा में मनुष्य को कहने और न कहने योग्य बातों का विवेक नहीं रहता । क्रुद्ध मनुष्य कुछ भी कह सकता है और कुछ भी बक सकता है । उसके लिए कुछ भी अकार्य और अवाच्य नहीं है ।

Shlok-gyan--168

न सुहृद्यो विपन्नार्था दिनमभ्युपपद्यते ।

स बन्धुर्योअपनीतेषु सहाय्यायोपकल्पते ॥

भावार्थ :-

सुह्रद् वही है जो विपत्तिग्रस्त दीन मित्र का साथ दे और सच्चा बन्धु वही है जो अपने कुमार्गगामी बन्धु का भी सहायता करे ।