Shlok Gyan

Total Shlokas:- 657

Shlok-gyan--495

हीयते हि मतिस्तात् , हीनैः सह समागतात् ।

समैस्च समतामेति , विशिष्टैश्च विशिष्टितम् ॥

भावार्थ :-

हीन लोगों की संगति से अपनी भी बुद्धि हीन हो जाती है , समान लोगों के साथ रहने से समान बनी रहती है और विशिष्ट लोगों की संगति से विशिष्ट हो जाती है ।

Shlok-gyan--496

यानि कानि च मित्राणि, कृतानि शतानि च ।

पश्य मूषकमित्रेण , कपोता: मुक्तबन्धना:॥

भावार्थ :-

जो कोई भी हों , सैकडो मित्र बनाने चाहिये । देखो, मित्र चूहे की सहायता से कबूतर जाल के बन्धन से मुक्त हो गये थे ।

Shlok-gyan--497

न द्वेष्टयकुशर्ल कर्म कुशले नातुषज्जजते।

त्यागी सत्तसमाष्टिी मेघावी छिन्नसंशयः॥

भावार्थ :-

जो मनुष्य अकुशल कर्म से तो द्वेष नहीं करता और कुशल कर्म में आसक्त नहीं होता- वह शुद्ध सत्वगुण से युक्त पुरुष संशय रहित, बुद्धिमान और सच्चा त्यागी है।

Shlok-gyan--498

न क्रुद्ध्येन्न प्रहृष्येच्च मानितोऽमानितश्च यः ।

सर्वभूतेष्वभयदस्तं देवा ब्राह्मणं विदुः ॥

भावार्थ :-

जो व्यक्ति सम्मान दिए जाने अथवा अपमान किये जाने पर न तो प्रसन्न होता है और न ही नाखुश, और जो सभी प्राणियों अभय देता है उसी को देवतागण ब्राह्मण कहते है ।

Shlok-gyan--500

नाभिनन्देत मरणं नाभिनन्देत जीवितम् ।

कालमेव प्रतीक्षेत निदेशं भृतको यथा॥

भावार्थ :-

संन्यासी न तो मृत्यु की इच्छा करता है और न ही जीवित रहने की कामना । वह बस समय की प्रतीक्षा करता है जैसे कि सेवक अपने स्वामी के निदेशों का ।

Shlok-gyan--501

तस्मात्सान्त्वं सदा वाच्यं न वाच्यं परुषं क्वचित् ।

पूज्यान् सम्पूजयेद्दद्यान्न च याचेत् कदाचन ॥

भावार्थ :-

अतः सदा ही दूसरों से सान्त्वनाप्रद शब्द बोले, कभी भी कठोर वचन न कहे । पूजनीय व्यक्तियों के सम्मान व्यक्त करे । दूसरों यथासंभव दे और स्वयं किसी से मांगे नहीं ।

Shlok-gyan--502

न हीदृशं संवननं त्रिषु लोकेषु वर्तते ।

दया मैत्री च भूतेषु दानं च मधुरा च वाक ॥

भावार्थ :-

प्राणियों के प्रति दया, सौहार्द्र, दानकर्म, एवं मधुर वाणी के व्यवहार के जैसा कोई वशीकरण का साधन तीनों लोकों में नहीं है ।

Shlok-gyan--503

इह लोके हि धनिनां परोऽपि स्वजनायते ।

स्वजनोऽपि दरिद्राणां सर्वदा दुर्जनायते ॥

भावार्थ :-

इस संसार में धनिकों के लिए पराया व्यक्ति भी अपना हो जाता है और निर्धनों के मामले में तो अपने लोग भी दुर्जन हो जाते हैं ।

Shlok-gyan--504

मङ्गलं भगवान् विष्णुः मङ्गलं गरूडध्वजः ।

मङ्गलं पुण्डरीकाक्षः मंगलायतनो हरिः ॥

भावार्थ :-

भगवान् विष्णु मंगल हैं, गरुड वाहन वाले मंगल हैं, कमल के समान नेत्र वाले मंगल हैं, हरि मंगल के भंडार हैं । मंगल अर्थात् जो मंगलमय हैं, शुभ हैं, कल्याणप्रद हैं ।

Shlok-gyan--505

नैकयान्यस्त्रिया कुर्याद् यानं शयनमासनम् ।

लोकाप्रासादकं सर्वं दृष्ट्वा पृष्ट्वा च वर्जयेत् ॥

भावार्थ :-

अकेली परायी स्त्री के साथ-साथ वाहन पर बैठने, लेटने और आसन ग्रहण करने का कार्य न करे । गौर से देखकर तथा औरों से पूछकर उन बातों से बचे जो आम लोगों को अप्रिय लगती हों ।