भास्कर द्वितीय

भास्कर द्वितीय

भास्कर द्वितीय

((भास्कराचार्य))

जन्म: 1114 ईस्वी. (बीजापुर, कर्नाटक)
मृत्यु: 1185 ईस्वी. (उज्जैन म. प्र.)
पिता: महेश्वर
राष्ट्रीयता: भारतीय
धर्म : हिन्दू
किताबें | रचनाएँ : सिद्धान्त शिरोमणि, पाटीगणिताध्याय या लीलावती, बीजगणिताध्याय, ग्रहगणिताध्याय, तथा गोलाध्याय

संसार के वे जानकारियाँ देनेवाले, जिन्हें पश्चिमी विद्वान् बड़ी कठिनाई से 500 वर्ष बाद हासिल कर पाए, महान् गणितज्ञ व खगोल-शास्त्री भास्कर "भास्कराचार्य" का जन्म सन् 1114 में कर्नाटक प्रदेश के बीजापुर नामक स्थान में हुआ था। उनके पिता महेश्वर भी गणित, वेदों एवं शास्त्रों के ज्ञाता थे। पिता व अन्य विद्वानों से उच्च कोटि की शिक्षा प्राप्त करनेवाले भास्कराचार्य की गणित में असाधारण रुचि थी।

सन् 1150 में उन्होंने अपना पहला ग्रंथ ‘सिद्धांत शिरोमणि’ तैयार किया। इसमें उन्होंने अपने गोत्र व निवास-स्थान का भी उल्लेख किया। भास्कराचार्य न सिर्फ उच्च कोटि के विद्वान् थे वरन् एक कुशल पिता भी थे। उनके पुत्र लक्ष्मीधर व पौत्र गंगदेव भी अपने समय के श्रेष्ठ विद्वानों में गिने जाते थे। यह इसीलिए भी महत्त्वपूर्ण है कि उस काल में मुसलिम आक्रमणकारी आने लगे थे और भारतीय विद्वान् पलायन कर रहे थे।

भास्कराचार्य का पहला ग्रंथ ‘सिद्धांत शिरोमणि’ चार खंडों में है। ये हैं— 

1. पाटी गणित, 

2. बीज गणित,

3. गणिताध्याय,

4. गोलाध्याय।

पहले दो खंड गणित से संबंधित हैं, जबकि अंतिम दो ज्योतिष से संबंधित हैं। ‘पाटी गणित’ के अंतर्गत सारणियाँ, संख्या प्रणाली, आठ परिक्रम, भिन्न, शून्य, त्रैराशिक, श्रेणी, क्षेत्रमिति, चित्ति (ढेरी), छाया आदि पर गहराई से प्रकाश डाला गया है।

‘बीजगणित’ में वर्णित विशिष्ट बातों के अंतर्गत यह भी बतलाया गया है कि ऋणात्मक व धनात्मक संख्याओं का वर्ग धनात्मक ही होता है। बड़े रोचक उदाहरणों के साथ कर्ण निकालने का विवरण दिया गया है; जैसे एक बिल के 9 हाथ ऊपर एक मोर बैठा है। उसने 27 हाथ की दूरी पर साँप को स्तंभ में स्थित बिल में आते हुए देखा और तिरछी चाल से उसकी ओर झपटा। आखिर मोर ने बिल से कितनी दूरी पर साँप को पकड़ा होगा? भास्कराचार्य ने बीजगणित के क्षेत्र में असाधारण कार्य किया और बाद के दिनों में उस पर काफी शोध हुआ। उन्होंने अव्यक्त संख्याओं की सारणियों, वर्गों का स्वरूप, वर्ग समीकरण व उनके समाधान, घन, क्षेत्रफल आदि का उदाहरण सहित वर्णन किया। उन्होंने शून्य की प्रकृति व गुणों का विस्तृत बखान किया। साथ ही  (पाई) का मान 3.14166 निकाला, जो वास्तविक मान के काफी नजदीक है। भास्कराचार्य की अनेक विधियाँ आज भी पाठ्य पुस्तकों में स्थान पा रही हैं और विद्यार्थी उनका प्रयोग कर रहे हैं। ‘गणिताध्याय’ में ग्रहों के मध्य व यथार्थ गतियाँ, काल, दिशा और स्थान संबंधी समस्याएँ व उनका हल है। साथ ही सूर्यग्रहण, चंद्रग्रहण, ग्रहों का उदय-अस्त आदि वर्णित है।

‘गोलाध्याय’ में ग्रहों की गति के कारण के अधिकृत सिद्धांत खासी पूर्णता के साथ वर्णित हैं। ‘यंत्राध्याय’ में ज्योतिष संबंधी यंत्रों का वर्णन है। भास्कराचार्य के एक अन्य ग्रंथ ‘सूर्य सिद्धांत’ में यह स्पष्ट रूप से समझाया गया है कि पृथ्वी गोल है और सूर्य के चारों ओर एक निश्चित परिपथ में चक्कर लगाती है। इस तथ्य के पक्ष में उन्होंने पुष्ट प्रमाण भी दिए।

सन् 1163 में उनकी एक अन्य रचना ‘कर्ण कौतूहल’ सामने आई, जिसमें अन्य तथ्यों के अलावा इस बात पर भी प्रकाश डाला गया था कि चंद्रमा की छाया से सूर्यग्रहण और पृथ्वी की छाया से चंद्रग्रहण लगता है। भास्कराचार्य का युग संक्रमण का युग था। विदेशी आक्रमणकारी भारतीय ज्ञान को नष्ट करने में लगे हुए थे और भारतीय नए ज्ञान के लिए प्रयास करने के बजाय अंधविश्वास में लग गए थे। उसी दौरान एक अफवाह फैली कि पृथ्वी निराधार है और वह धँसती जा रही है। वैसे भी भारतीय पौराणिक ग्रंथों में वर्णित है कि पृथ्वी शेषनाग के सिर पर टिकी है।

लोगों में दहशत फैली हुई थी। भास्कराचार्य ने सप्रमाण यह सिद्ध किया कि निश्चय ही पृथ्वी निराधार है पर उसके चारों ओर जो ग्रह व नक्षत्र आदि हैं, वे एक-दूसरे को आकर्षित करते हैं और इस कारण एक-दूसरे के प्रति संतुलन बना हुआ है। पृथ्वी ऐसी ही रहेगी और कभी धँसेगी नहीं। सदियों बाद केपलर और न्यूटन ने जो नियम प्रतिपादित किए, वे भास्कराचार्य ने चार-पाँच सौ वर्ष पूर्व ही कर दिए थे। भास्कराचार्य अति परिश्रमी व धार्मिक व्यक्ति थे। धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन करने के अलावा वे उस पर टीकाएँ भी लिखा करते थे।

उस समय न दूरबीन थी और न अन्य सुविधाएँ। वे आँखों से या बाँस नलिकाओं से ग्रह-नक्षत्रों आदि का अध्ययन करते रहते थे। वे रात-रात भर जागते थे और दिन-दिन भर गणनाएँ करते थे। दिन की गणना के परिणाम का सत्यापन फिर रात को करते थे। पुराने ज्योतिषियों द्वारा लिखे लेखों से अशुद्धियाँ निकालकर उन्हें ठीक करते थे। ऐसा उन्होंने किसी वेतन या पुरस्कार के लिए नहीं किया वरन् संसार को लाभान्वित करने की अभिलाषा से किया।

कालांतर में भास्कराचार्य के ग्रंथों का विदेशी भाषाओं में अनुवाद हुआ। इस प्रकार उनका गणित ज्ञान व खगोल ज्ञान विदेशों तक पहुँचा। अकबर के दरबारी फैजी ने उनकी रचना ‘लीलावती’ का अनुवाद किया था। सन् 1810 में कॉलब्रुक ने ‘लीलावती’ का अनुवाद अंग्रेजी में किया था। आधुनिक काल में जाकर रॉयल सोसाइटी के जर्नल में उनकी प्रशंसा छपी और भारत सरकार ने उनके सम्मान में अपने दूसरे अंतरिक्ष उपग्रह का नाम ‘भास्कर’ रखा। पहले एक अन्य विद्वान् भास्कराचार्य के नाम से लोकप्रिय हो चुके हैं।

अतः उपर्युक्त विद्वान् को भास्कराचार्य द्वितीय के नाम से जाना जाता है। प्राचीन भारतीय वैज्ञानिकों की शृंखला की इस अंतिम कड़ी का निधन 65 वर्ष की आयु में सन् 1179 में हुआ था।


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