जन्म: | 1550, ईस्वी. (U.K.) |
मृत्यु: | 4 अप्रेल, 1617 (U.K.) |
राष्ट्रीयता: | ब्रिटिश |
गणितज्ञ व लॉगरिदम प्रणाली के जनक जॉन नेपियर का जन्म एडिनबर्ग के पास मार्किस्टन कासल में सन् 1550 में हुआ था।
उनका परिवार जमींदार था। जॉन नेपियर की प्रारंभिक शिक्षा फ्रांस में हुई थी। इसके बाद वे पढ़ने के लिए एंड्रयूज गए। सारी-की-सारी पढ़ाई उनकी विदेश में हुई, पर डिग्री के बारे में ज्ञात नहीं है।
इसके बाद वे अपने गृहनगर लौट आए और सन् 1571 में उनका विवाह हो गया। उन्हें अपनी पैतृक जायदाद बहुत बाद में मिल पाई। इस बीच वे लगातार कृषि संबंधी प्रयोग करते रहे। साथ में वे अपना समय धार्मिक विवादों, गणित एवं युद्ध संबंधी उपकरण आदि तैयार करने में लगाते थे।
उन्होंने अपने अध्ययनों व अनुसंधानों को कलमबद्ध भी किया। सन् 1596 में उन्होंने एक प्रमुख राजनीतिक हस्ती एंथनी बेकस को अपनी एक पांडुलिपि भेजी, जिसमें अपने विकसित उन गोपनीय आविष्कारों व उपकरणों का वर्णन था, जो एक द्वीप की सुरक्षा के लिए आवश्यक भी थे और लाभदायक भी। उनका मानना था कि इनकी सहायता से अजनबियों, ईश्वर के सत्य व धर्म-विरोधियों से निपटा जा सकता है। इस पांडुलिपि में जला देनेवाले दर्पणों, तोप के गोलों, आधुनिक टैंकों जैसे वाहनों का वर्णन था।
जॉन नेपियर को उनके लॉगरिदम अर्थात् लघुगणक प्रणाली के विकास के लिए मुख्यतः जाना जाता है। अपने पहले विवाह के पश्चात् उन्होंने गणित की इस शाखा के बारे में अध्ययन प्रारंभ किया था। इस अध्ययन के दौरान उन्होंने गणित की अन्य विधाओं का भी अध्ययन किया। उनका संख्या प्रणाली संबंधी अध्ययन अत्यंत महत्त्वपूर्ण था।
उनके धर्म-विरोधी कार्यों और इस कारण उपजनेवाले विवादों के कारण उपर्युक्त अनुसंधान कार्यों में काफी बाधाएँ आईं। फिर भी, सन् 1594 तक उन्होंने लॉगरिदम का मौलिक सिद्धांत विकसित कर लिया था। आनेवाले समय में वे लगातार इसकी उपयोगिता बढ़ाते रहे। उन्होंने इसके प्रयोग के लिए सारणियाँ स्वयं तैयार कीं। इस प्रक्रिया में उन्होंने वर्तमान दशमलव प्रणाली का भी अध्ययन किया। सन् 1614 में जॉन नेपियर का लॉगरिदम संबंधी कार्य प्रकाशित हुआ। इसमें सारणियाँ भी थीं और उनके प्रयोग की विधि भी समझाई गई थी। गणित की विभिन्न विधाओं में इसका प्रयोग किस प्रकार हो सकेगा, यह भी बतलाया गया था। विशेष बात यह भी थी कि लॉगरिदम की प्रकृति को समझाने के लिए उचित उदाहरणों का प्रयोग किया गया था; जैसे—सरल रेखा में बिंदु किस प्रकार आगे बढ़ते हैं, ज्यामितीय व अंकगणितीय शृंखला जिस प्रकार बढ़ती है, उसी प्रकार की वृद्धि समझाई गई थी।
उस समय लॉगरिदम को कृत्रिम संख्याएँ कहा जाता था। तत्कालीन विद्वान् इससे अत्यधिक प्रभावित थे और यह नहीं समझ पा रहे थे कि इस पूरी विधि को विकसित करने का सुराग आखिर उन्होंने कहाँ से पाया होगा। जो भी हो, विधि पर आधारित उनकी पुस्तक का तत्काल अंग्रेजी में अनुवाद हुआ और यह सन् 1615 में प्रकाशित भी हो गया। तत्कालीन गणितज्ञ ब्रिग्स, राइट आदि उनसे मिलने आए। उन्होंने इस विषय पर गहन चर्चा की कि किस प्रकार लॉगरिदम के बेस को बेहतर व सुविधाजनक बनाया जाए। कुशाग्र बुद्धि जॉन नेपियर इस संभावना पर पहले से ही चिंतन कर चुके थे।
उन्होंने समझ लिया था कि इसके लिए पुनर्गणना करके सारणियों को तैयार करना होगा। नेपियर से चर्चा के पश्चात् बिग्स ने दशमलव आधारवाली लॉगरिदमिक सारणियों को तैयार करना प्रारंभ किया; पर ये नेपियर के जाने के बाद ही सन् 1617 व 1624 में प्रकाशित हो पाईं। बाद में प्राकृतिक (नेचुरल) या नेपिरियन लॉगरिदम विकसित हुई, जो मूल नेपिरियन लॉगरिदम से भिन्न थी, पर उन्हीं के नाम से प्रयोग होती रही।
हालाँकि जॉन नेपियर अपनी लघुगणक प्रणाली के लिए ही लोकप्रिय हैं, पर उन्होंने अपने जीवन काल में नंबर-युक्त छड़ें भी विकसित कीं, जो नेपियर्स बोन कहलाती हैं। यह तरीका काफी लोकप्रिय हुआ, पर गणितीय रोचकता इसमें नहीं है। उन्होंने वह विधि भी निकाली, जिसमें चैस बोर्ड पर काउंटर की गतिविधियों से गुणा करना, भाग करना, वर्गमूल निकालना आदि किया जा सकता है।
त्रिकोणमिति के अनेक नियमों को नेपियर के नियमों के रूप में जाना जाता है। नेपियर के योगदान से तात्कालिक विद्वत् समाज व वैज्ञानिक समाज में धूम मच गई थी। उनकी लघुगणक प्रणाली का बड़े पैमाने पर उपयोग खगोलीय गणनाओं में होने लगा था। केपलर ने इसके प्रचार-प्रसार में योगदान किया था। जॉन नेपियर अति परिश्रमी व्यक्ति थे। उन्होंने अपने काम में लंबा समय लगाया और ऐसी प्रणाली तैयार की, जिससे शुद्ध व सटीक परिणाम आता था।
शताब्दियों तक उनके कार्य का बड़े पैमाने पर उपयोग होता रहा और आज भी हो रहा है; पर इस प्रणाली में किसी व्यापक संशोधन की आवश्यकता नहीं पड़ी। जीवन भर धर्म में अतर्कसंगत बातों का विरोध करनेवाले जॉन नेपियर ने पहली पत्नी के निधन के पश्चात् दूसरा विवाह किया था। उन्होंने यूरोप की दूर-दूर यात्रा भी की थी। 4 अप्रैल, 1617 को इस महान् गणितज्ञ का मर्किस्टन में निधन हो गया।