जगद्गुरु रामभद्राचार्य

जगद्गुरु रामभद्राचार्य जी के बारे मेंं

जगद्गुरु रामभद्राचार्य

जगद्गुरु रामभद्राचार्य

(गिरिधर मिश्रा)

जन्म: शन्डीखुर्द गाँव, जौनपुर (उत्तरप्रदेश)
पिता: पंडित राजदेव मिश्रा
माता: शचीदेवी मिश्रा
राष्ट्रीयता: भारतीय
धर्म : हिन्दू
शिक्षा: 1974 में शास्त्री (बैचलर ऑफ आर्ट्स) की डिग्री
अवॉर्ड: 1998 विश्व धर्म संसद द्वारा धर्मचक्रवर्ती की उपाधि

गुरु रामभद्राचार्य जी का जीवन परिचय :-

एक व्‍यक्ति, जिसकी आंखों की रोशनी दो माह की उम्र में ही चली गई हो, वो शख्‍स 22 भाषाएं जानता होगा और उसने 80 ग्रंथ रच दिए होंगे. आप कहेंगे ये नामुमकिन है, लेकिन ये सच है. हम बात कर रहे हैं रामलला जन्‍मभूमि केस के दौरान सुप्रीम कोर्ट में अपनी गवाही से मामले की दिशा मोड़ देने वाले गुरु रामभद्राचार्य की. हाल में वह तुलसीकृत हनुमान चालीसा में गलतियां निकालने के कारण सुर्खियों में हैं. वह पिछले कुछ समय से लगातार खबरों में बने रहने वाले पंडित धीरेंद्र कुमार शास्‍त्री के गुरु भी हैं. आइए जानते हैं गुरु रामभद्राचार्य के बारे में सबकुछ.

गुरु रामभद्राचार्य ने चित्रकूट में तुलसी पीठ की स्‍थापना की थी. वह 2 महीने की आयु से ही दृष्टिहीन हैं. वह रामकथा वाचक के तौर पर काफी लोकप्रिय हैं. छोटी उम्र से ही दृष्टिहीन होने के बाद भी रामभद्राचार्य 22 भाषाओं के जानकार हैं और अब तक 80 ग्रंथों की रचना कर चुके हैं. बागेश्‍वर धाम के पीठाधीश्‍वर पंडित धीरेंद्र कृष्‍ण शास्‍त्री गुरु रामभद्राचार्य के शिष्‍य हैं. धीरेंद्र शास्‍त्री के चमत्‍कारों को लेकर जब विवाद बढ़ा तो गुरु रामभद्राचार्य ने उनका बचाव किया  

जन्म एवं प्रारम्भिक जीवन :-

माता शची देवी और पिता पण्डित राजदेव मिश्र के पुत्र जगद्गुरु रामभद्राचार्य का जन्म एक वसिष्ठगोत्रिय सरयूपारीण ब्राह्मण परिवार में भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के जौनपुर जिले के सांडीखुर्द नामक ग्राम में हुआ। माघ कृष्ण एकादशी विक्रम संवत 2006 (तदनुसार 14 जनवरी 1950 ई), मकर संक्रान्ति की तिथि को रात के 10:34 बजे बालक का प्रसव हुआ। उनके पितामह पण्डित सूर्यबली मिश्र की एक चचेरी बहन मीरा बाई की भक्त थीं और मीरा बाई अपने काव्यों में श्रीकृष्ण को गिरिधर नाम संबोधित करती थीं, अतः उन्होंने नवजात बालक को गिरिधर नाम दिया।


गिरिधर की नेत्रदृष्टि:-

गिरिधर की नेत्रदृष्टि दो मास की अल्पायु में नष्ट हो गयी। मार्च 24, 1950 के दिन बालक की आँखों में रोहे हो गए। गाँव में आधुनिक चिकित्सा उपलब्ध नहीं थी। बालक को एक वृद्ध महिला चिकित्सक के पास ले जाया गया जो रोहे की चिकित्सा के लिए जानी जाती थी। चिकित्सक ने गिरिधर की आँखों में रोहे के दानों को फोड़ने के लिए गरम द्रव्य डाला, परन्तु रक्तस्राव के कारण गिरिधर के दोनों नेत्रों की ज्योति चली गयी। आँखों की चिकित्सा के लिए बालक का परिवार उन्हें सीतापुर, लखनऊ और मुम्बई स्थित विभिन्न आयुर्वेद, होमियोपैथी और पश्चिमी चिकित्सा के विशेषज्ञों के पास ले गया, परन्तु गिरिधर के नेत्रों का उपचार न हो सका। गिरिधर मिश्र तभी से प्रज्ञाचक्षु हैं। वे न तो पढ़ सकते हैं और न लिख सकते हैं और न ही ब्रेल लिपि का प्रयोग करते हैं – वे केवल सुनकर सीखते हैं और बोलकर लिपिकारों द्वारा अपनी रचनाएँ लिखवाते हैं।

प्रथम काव्य रचना:-

गिरिधर के पिता मुम्बई में कार्यरत थे, अतः उनका प्रारम्भिक अध्ययन घर पर पितामह की देख-रेख में हुआ। दोपहर में उनके पितामह उन्हें रामायण, महाभारत, विश्रामसागर, सुखसागर, प्रेमसागर, ब्रजविलास आदि काव्यों के पद सुना देते थे। तीन वर्ष की आयु में गिरिधर ने अवधी में अपनी सर्वप्रथम कविता रची और अपने पितामह को सुनाई। इस कविता में यशोदा माता एक गोपी को श्रीकृष्ण से लड़ने के लिए उलाहना दे रही हैं।[२३

गीता और रामचरितमानस का ज्ञान:-

एकश्रुत प्रतिभा से युक्त बालक गिरिधर ने अपने पड़ोसी पण्डित मुरलीधर मिश्र की सहायता से पाँच वर्ष की आयु में मात्र पन्द्रह दिनों में श्लोक संख्या सहित सात सौ श्लोकों वाली सम्पूर्ण भगवद्गीता कण्ठस्थ कर ली। 1955 ई में जन्माष्टमी के दिन उन्होंने सम्पूर्ण गीता का पाठ किया संयोगवश, गीता कण्ठस्थ करने के 52 वर्ष बाद नवम्बर 30, 2007 ई के दिन जगद्गुरु रामभद्राचार्य ने संस्कृत मूलपाठ और हिन्दी टीका सहित भगवद्गीता के सर्वप्रथम ब्रेल लिपि में अंकित संस्करण का विमोचन किया। सात वर्ष की आयु में गिरिधर ने अपने पितामह की सहायता से छन्द संख्या सहित सम्पूर्ण श्रीरामचरितमानस साठ दिनों में कण्ठस्थ कर ली। 1957 ई में रामनवमी के दिन व्रत के दौरान उन्होंने मानस का पूर्ण पाठ किया। कालान्तर में गिरिधर ने समस्त वैदिक वाङ्मय, संस्कृत व्याकरण, भागवत, प्रमुख उपनिषद्, संत तुलसीदास की सभी रचनाओं और अन्य अनेक संस्कृत और भारतीय साहित्य की रचनाओं को कण्ठस्थ कर लिया।

उपनयन और कथावाचन :-

गिरिधर मिश्र का उपनयन संस्कार निर्जला एकादशी के दिन जून 24, 1961 ई को हुआ। अयोध्या के पण्डित ईश्वरदास महाराज ने उन्हें गायत्री मन्त्र के साथ-साथ राममन्त्र की दीक्षा भी दी। भगवद्गीता और रामचरितमानस का अभ्यास अल्पायु में ही कर लेने के बाद गिरिधर अपने गाँव के समीप अधिक मास में होने वाले रामकथा कार्यक्रमों में जाने लगे। दो बार कथा कार्यक्रमों में जाने के बाद तीसरे कार्यक्रम में उन्होंने रामचरितमानस पर कथा प्रस्तुत की, जिसे कईं कथावाचकों ने सराहा

औपचारिक शिक्षा :-

उच्च विद्यालय 7 जुलाई 1967 के दिन जौनपुर स्थित आदर्श गौरीशंकर संस्कृत महाविद्यालय से गिरिधर मिश्र ने अपनी औपचारिक शिक्षा प्रारम्भ की, जहाँ उन्होंने संस्कृत व्याकरण के साथ-साथ हिन्दी, आंग्लभाषा, गणित, भूगोल और इतिहास का अध्ययन किया। मात्र एक बार सुनकर स्मरण करने की अद्भुत क्षमता से सम्पन्न एकश्रुत गिरिधर मिश्र ने कभी भी ब्रेल लिपि या अन्य साधनों का सहारा नहीं लिया। तीन महीनों में उन्होंने वरदराजाचार्य विरचित ग्रन्थ लघुसिद्धान्तकौमुदी का सम्यक् ज्ञान प्राप्त कर लिया। प्रथमा से मध्यमा की परीक्षाओं में चार वर्ष तक कक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त करने के बाद उच्चतर शिक्षा के लिए वे सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय गए।

संस्कृत में प्रथम काव्यरचना :-

आदर्श गौरीशंकर संस्कृत महाविद्यालय में गिरिधर ने छन्दःप्रभा के अध्ययन के समय आचार्य पिंगल प्रणीत अष्टगण का ज्ञान प्राप्त किया। अगले ही दिन उन्होंने संस्कृत में अपना प्रथम पद भुजंगप्रयात छन्द में रचा।

महाघोरशोकाग्निनातप्यमानं पतन्तं निरासारसंसारसिन्धौ।
अनाथं जडं मोहपाशेन बद्धं प्रभो पाहि माँ सेवकक्लेशहर्त्तः ॥

हे सर्वसमर्थ प्रभु, सेवक के क्लेशों को हरनेवाले! मैं इस महाघोर शोक की अग्नि द्वारा तपाया जा रहा हूँ, निरासार संसार-सागर में गिर रहा हूँ, अनाथ और जड़ हूँ और मोह के पाश से बँधा हूँ, मेरी रक्षा करें।
 

विरक्त दीक्षा और तदनन्तर जीवन:-

1976 में गिरिधर मिश्र ने करपात्री महाराज को रामचरितमानस पर कथा सुनाई। स्वामी करपात्री ने उन्हें विवाह न करने, वीरव्रत धारण करके आजीवन ब्रह्मचारी रहने और किसी वैष्णव सम्प्रदाय में दीक्षा लेने का उपदेश दिया। गिरिधर मिश्र ने नवम्बर 19, 1983 के कार्तिक पूर्णिमा के दिन रामानन्द सम्प्रदाय में श्री श्री 1008 श्री रामचरणदास महाराज फलाहारी से विरक्त दीक्षा ली। अब गिरिधर मिश्र रामभद्रदास नाम से आख्यात हुए।

अयोध्या मसले में साक्ष्य:-

जुलाई 2003 में जगद्गुरु रामभद्राचार्य इलाहाबाद उच्च न्यायालय के सम्मुख अयोध्या विवाद के अपर मूल अभियोग संख्या 5 के अन्तर्गत धार्मिक मामलों के विशेषज्ञ के रूप में साक्षी बनकर प्रस्तुत हुए (साक्षी संख्या ओ पी डब्लु १६) उनके शपथ पत्र और जिरह के कुछ अंश अन्तिम निर्णय में उद्धृत हैं। अपने शपथ पत्र में उन्होंने सनातन धर्म के प्राचीन शास्त्रों (वाल्मीकि रामायण, रामतापनीय उपनिषद्, स्कन्द पुराण, यजुर्वेद, अथर्ववेद, इत्यादि) से उन छन्दों को उद्धृत किया जो उनके मतानुसार अयोध्या को एक पवित्र तीर्थ और श्रीराम का जन्मस्थान सिद्ध करते हैं। उन्होंने तुलसीदास की दो कृतियों से नौ छन्दों (तुलसी दोहा शतक से आठ दोहे और कवितावली से एक कवित्त) को उद्धृत किया जिनमें उनके कथनानुसार अयोध्या में मन्दिर के तोड़े जाने और विवादित स्थान पर मस्जिद के निर्माण का वर्णन है। प्रश्नोत्तर के दौरान उन्होंने रामानन्द सम्प्रदाय के इतिहास, उसके मठों, महन्तों के विषय में नियमों, अखाड़ों की स्थापना और संचालन और तुलसीदास की कृतियों का विस्तृत वर्णन किया। मूल मन्दिर के विवादित स्थान के उत्तर में होने के प्रतिपक्ष द्वारा रखे गए तर्क का निरसन करते हुए उन्होंने स्कन्द पुराण के अयोध्या महात्म्य में वर्णित राम जन्मभूमि की सीमाओं का वर्णन किया, जोकि न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल द्वारा विवादित स्थल के वर्तमान स्थान से मिलती हुई पायी गयीं।


 जगद्गुरु रामभद्राचार्य ने हनुमान चालीसा में बताईं चार गलतियां:- 


चौपाई क्रं. - 6,27,32,और 38 में किए गए हैं, जो इस प्रकार है:-

छटवी चौपाई - शंकर सुवन केसरीनंदन ,तेजप्रताप महा जग वदंन।।
सुधार- शंकर स्वयं केसरीनंदन , तेज प्रताप महा जग वदंन ।।
27 वीं चौपाई - सब पर राम तपस्वी राजा, तिनके काज सकल तुम साजा।।
सुधार - सब पर राम राय सिरताजा ,तिनके काज सकल तुम साजा।।
32 वी चौपाई - राम रसायन तुम्हरे पासा , सदा रहो रघुपति के दासा ।।
सुधार - राम रसायन तुम्हरे पासा , सादर हो रघुपति के दासा ।।
38 वी चौपाई - जो सत बार पाठ कर कोई , छूटहि बंदि महा सुख होई ।।
सुधार - यह सत बार पाठ कर जोई , छूटहि बंदि महा सुख होई ।।