यशवंत फुले

यशवंत फुले जी के बारे मेंं

यशवंत फुले

यशवंत फुले

(डॉ. यशवंत फुले)

जन्म: 18 मार्च 1873
मृत्यु: 13 अक्टूबर 1906
पिता: जोतिबा फूले
माता: सावित्रीबाई फुले
जीवनसंगी: ससाने की पुत्री राधा
राष्ट्रीयता: भारतीय
धर्म : हिन्दू
शिक्षा: चिकित्सा विज्ञान

जन्म एवं बचपन:-

काशीबाई ने कुछ समय बाद 1873 में फूले-दंपत्ति के घर पर एक सुंदर से बच्चे को जन्म दिया। सावित्री, काशीबाई और उसके बच्चे का बहुत ध्यान रखती। सावित्री को उस शिशु से एक खास लगाव हो गया था। सावित्री ने यहाँ फिर एक बार बड़ा क्रांतिकारी कदम उठाया, अपने परिवार व रिश्तेदारों के घोर विरोध के बावजूद काशीबाई के शिशु को अपनाकर 1874 में कानूनन गोद ले लिया। फूले-दंपति ने शिशु का नाम यशवंत रखा। फिर तो सावित्री के जीवन में बहार आ गई। वे यशवंत की जरूरतें पूरी करने के लिए घर भर में नाची-नाची फिरती। रात-रात भर जगती कि कहीं उसने गीला तो नहीं कर दिया। कहीं उसका ओढ़ना तो नहीं उतर गया। इसी तरह डांटते-दुलारते यशवंत बड़ा होने लगा।

पालन-पोषण करने वाली मां की महानता:-

"किसी अज्ञात मां-बाप के अनाथ बच्चे को गोद लेकर उसका अपने बच्चों के समान पालन पोषण करने वाली विशाल अंतःकरण की कोई भी स्त्री हो सकती है किंतु विधवा के अनैतिक संबंधों से जन्मे बालक को अपने बच्चे के समान पालन पोषण करने वाली स्त्री मिलना दुर्लभ है। सावित्रीबाई ने एक तरुण ब्राह्मण विधवा काशीबाई के अनैतिक संबंधों से जन्मे बालक (जिसके बाप का पता नहीं) को गोद लिया। यह साहस केवल भावुक होकर मानवतावादी भावना से उन्होंने किया, ऐसा कहना उचित नहीं है। जाति, वंश, धर्म तथा परंपरा आदि की मर्यादाओं के बंधन को तोड़कर, अपने विचारों के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित स्त्री ही ऐसा विद्रोह कर सकती है। वह स्त्री है, सावित्रीबाई फूले।"--लेखिका इंदुमती

यशवंत की शिक्षा:-

समय पर यशवंत का दाखिला स्कूल में करा दिया गया। सावित्री तो साक्षात शिक्षा की प्रतिमूर्ति थी। इसलिए इस बात से हमेशा सचेत रहती कि यशवंत को शिक्षा का उचित वातावरण मिले। घर में भूत, भगवानों का डर नहीं था। भाग्य-दुर्भाग्य जैसी बातों का नामोनिशान नहीं था। अपनी मेहनत व कार्यों पर भरोसा करना सिखाया जाता था। सदाचरण, सत्यनिष्ठा पर जोर दिया जाता। घर के ऐसे खुले माहौल में आत्मविश्वास से भरपूर यशवंत अपनी शिक्षा अच्छे ढंग से ग्रहण करने लगा। सावित्री ने यूं तो अनेकों बच्चों पर अपनी ममता लुटाई, मगर अब वे एक ममतामयी, मगर जिम्मेदार मां नजर आई। 1893 में यशवंत ने मैट्रिक परीक्षा पास की। इसके बाद मेडिकल डिप्लोमा कर, डॉक्टर बने। सावित्री के दिए संस्कार की झलक उनमें स्पस्ट देखी जा सकती थी।

यशवंत का विवाह:-

04 फरवरी 1889: फुले के दत्तक पुत्र डॉ.यशवंत का विवाह ससाने की पुत्री राधा से हुआ।

यशवंत द्वारा चिकित्सकीय सेवा:-

1897 में महाराष्ट्र में सर्वत्र प्लेग फैलने के दौरान मरीजों का इलाज करने के लिये अपने दत्तक पुत्र यशवंत के साथ मिलकर सावित्रीबाई फुले ने पूणे में हडपसर में सासने माला में खुली प्राकृतिक जगह पर एक अस्पताल खोला और अस्पृश्य माने जाने वाले लोगों का भी इलाज किया। अपने अस्पताल में सावित्रीबाई खुद हर एक मरीज का ध्यान रखती, उन्हें विविध सुविधायें प्रदान करती थी. स्वयं सावित्रीबाई मरीजों को अपने (पुत्र यशवंत के पास) दवाखाने ले जाती। बहुत लोग रोग मुक्त हुए।

संस्कारी एवं जिम्मेदार बेटा:-

सावित्री रोगियों की सेवा कार्य में जी तोड़ मेहनत कर रही थी वे यशवंत की मदद से उनका इलाज करवाती और उनके प्राण बचाने की भरपूर कोशिश कर रही थी। हालांकि यशवंत ने कई बार उनसे अपना ध्यान रखने का आग्रह किया था मगर मैं हंसकर टाल देती। उन पर तो बस समाज के दुख दूर करने की धुन सवार थी। एक महार (अछूत) का लड़का भी प्लेग की चपेट में आ गया जिसे कोई स्पर्श भी नहीं करना चाहता था। सावित्रीबाई उसे स्वयं कंधे पर उठाकर पुत्र यशवंत के दवाखाने ले गई। इस कारण खुद भी बीमारी की चपेट में आ गई। यशवंत बहुत नाराज हुआ। मगर उसकी इस नाराजगी से भी सावित्री वात्सल्य से भर उठी। उन्हें अपने बेटे पर गर्व हुआ। मगर उन्हें इस बात पर ज्यादा सुकून था कि उन्होंने कई लोगों की जान बचा कर उन्हें जीवन दिया। दूसरों के लिए संघर्ष करते करते खुद अपनी जिंदगी की लड़ाई हार गई। और इसी के चलते 10 मार्च 1897 को उनका परिनिर्वाण हो गया।

तत्कालिन सामाजिक परिवेश:-

19वी शताब्दी में भी कम उम्र में ही विवाह करना हिन्दूओ की परंपरा थी। इसीलिये उस समय बहुत-सी महिलायें अल्पायु में ही विधवा बन जाती थी। धार्मिक परम्पराओं के अनुसार महिलाओं का पुनर्विवाह नही किया जाता था. विधवाओं को सर के बाल कटाने पड़ते थे, और बहुत-ही साधारण जीवन जीना पड़ता था। फूले-दंपत्ति ऐसी महिलाओं को उनका हक/सम्मान दिलवाना चाहते थे। उन्होंने नाईयो के सहयोग से आंदोलन करना शुरू किया और विधवाओं को सर के बाल कटवाने से बचाया.

जन्मदात्री मां को बचाया जोतिबा ने:-

उस समय महिलाओं को सामाजिक सुरक्षा न होने की वजह से उन पर घोर अत्याचार किये जाते थे, जिसमें कहीं-कहीं तो घर के सदस्यों द्वारा ही विधवाओं का शारीरिक शोषण किया जाता था. गर्भवती हो जाने पर विधवाओं का कई बार गर्भपात कराया जाता था, और बच्चे पैदा होने के डर से बहुत-सी विधवायें आत्महत्या कर लेती थी.

उसी समय, एक ऐसी ही काशीबाई नाम की धोखा खाई हुई ब्राह्मण विधवा, गर्भवती होने पर बदनामी के डर से अपना जीवन समाप्त करने की सोच रही थी। वह नदी में डूब कर मर जाना चाहती थी कि ज्योति राव ने उसे बचा लिया। वे सम्मानपूर्वक उसे घर ले आए। सावित्रीबाई ने भी उस महिला को अपने घर रहने की आज्ञा दी और उसकी अच्छी तरह देखभाल सेवा भी की।   

वंश का अंत:-

यशवंत जी नि:संतान रहे और समाज की सेवा करते-करते 13 अक्टूबर 1906 को उनका परिनिर्वाण हो गया। बाद में उनकी जीवनसंगिनी का भी गुमनामी एवं गरीबी में परिनिर्वाण हो गया।